पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास.djvu/१५३

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होकर संसार में अपना यश फैलायेगा! मैं इसका नाम अकबर रखता हूं क्योंकि मुझे आशा है कि यह बड़ा ही ज़बर्दस्त बादशाह होगा।

१७—सिन्ध से ईरान जाते हुए हुमायूं को क़न्दहार होकर जाना पड़ा। यहां उसका भाई अस्करी हुकूमत करता था। अपने भाई की आवभगत और सहायता करनी तो दूर रही उसने उसे क़ैद करना चाहा। बड़ी कठिनाई से घोड़े को पोया चला के हुमायूं हमीदा बेगम के साथ भागा पर अकबर जो अभी दो ही बरस का था चचा के हाथ लगा और कुछ दिन क़ैद रहा। हुमायूं फ़ारस पहुंचा तो वहां के बादशाह तहमास्प ने उसका बड़ा सत्कार किया और उसको शिया मत का कर लिया क्योंकि ईरानी सब शिया हैं। तहमास्प ने कुछ दिनों हुमायूं को अपने दर्बार में रक्खा फिर बारह हज़ार ईरानी उसके साथ भेजे। हुमायूं यह सेना लेकर अफ़गानिस्तान गया और वहां से अपने बेटे अकबर को छुड़ा लाया; दस बरस तक अपने भाइयों से लड़ता रहा। कई बार वह इसके पंजे में आये और हुमायूं के सर्दारों ने सलाह दी कि इनको मारडालना चाहिये। पर हुमायूं ने उनकी न सुनी। इसने नित उनके साथ भला बर्ताव किया और उनके अपराध क्षमा किये। उसको बाप की सलाह और अपना बचन सदा स्मरण रहा। कई बार हुमायूं ने कामरां से कहा कि भाइयों की तरह मेरा सहायक बन, पर उसने एक न मानी।

१८—अकबर कामरां के हाथ लगा। हुमायूं उस समय काबुल घेरे पड़ा था। निर्दयी चचा ने अपने नन्हें से भतीजे को तीरों की बौछार में काबुलकी कोट पर बिठा दिया पर परमेश्वर की दया से कोई तीर उसके न लगा। हुमायूं ने देखा कि जो कामरां बिलकुल निर्बल न कर दिया जायगा वह अकबर को मारडालेगा।

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