पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/१६१

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यौद्ध और जैन धम्मोका आरम्म २३१ उनके मतमें अच्छेसे अच्छा, श्रेष्ठसे श्रेठ और त्यागीसे त्यागी मनुष्य ही परमेश्वर है । इस अङ्गमें जैनोंका धर्म यूरोपीय दार्श. निक कमिटोके धर्मसे मिलता है । अमरीकामें ईसाइयोंका एक सम्पदाय भी लगभग इसी सिद्धान्तकी शिक्षा देने लगा है। जैनोंका सबसे बड़ा सिद्धान्त महिंसा है । बौद्धोंमें मृत पशु. के मांसको पानेका निषेध नहीं। ब्रह्मामें, सिंहलमें, चीनमें, जापानमें सारांश यह कि सभी बौद्ध देशोंमें चौद्ध लोग मांस पाते हैं। परन्तु कोई भी जैन मांस नहीं खाता। जैनोंका सबसे बड़ा नैतिक सिद्धान्त अहिंसा है। इस सिद्धान्तको जैनोंने चरमसीमा- तक पहुंचा दिया है, यहांतक कि कुछ लोगोंकी दृष्टिमें जैन होना परले दर्जेकी कायरता है। परन्तु जैन विद्वान् धर्म-युद्धर्मे लड़नेको पाप नहीं समझते और न दण्ड देना वे अपने धर्मके चिरद्ध समझते हैं। जैनोंका आवार-दर्शन त्यागके अगमें बहुत ऊँचा है । उस. के अनुसार पूरा पूरा काम करना मनुष्यों के लिये असम्भव है। इन्नीलिये जैन धर्मशा प्रभाव मनुष्य-प्रकृतिपर ऐसा पड़ता है कि उससे मनुष्य जीवनके साधारण संग्रामके लिये निर्यल हो जाते हैं। एक मोर तो जैन साधु उच्च कोटिके संसार-त्यागी हैं, दूसरी ओर जैन जनता क्षुद्र जीवों को तो रक्षा करती है परन्तु मनुष्योंके साथ उनका बर्ताव बड़ी ही निर्दयताका होता है। शायद अलाध्य आचार शास्त्रपर यल देनेका ही यह परिणाम है। जैन साधु शेप समस्त साधु-सम्प्रदायोंकी तुलना में अधिक सत्यवादी, मधिक त्यागी और अधिक निःस्वार्थ होते है। जैनो के दो प्रसिद्ध सम्प्रदाय है-एक श्वेताम्बर अर्थात् सफेद कपड़ा पहननेवाले और दूसरे दिगम्बर अर्थात् नगे रहनेवाले ।