महाराजा विन्दुसार और महाराजा अशोकका राजत्वकाल १८५ कानून अतीव निर्दय था। मृत्यु-दण्ड भी दिया जाता था। यदि उसने अपनी रानीको जीती जलवाया तो यह बड़ा ही पाशविक कर्म था जो उसको शोभा नहीं देता। ऐसा जान पड़ता है कि अशोकके समयमें शिक्षाका सर्व साधारणमें खूब प्रचार था। क्या यह वात आश्चर्य और गौरव. के योग्य नहीं है कि अशोकके इकतालिस वर्षके शासन-कालमें एक भी विद्रोह नहीं हुआ। इतने बड़े विशाल साम्राज्यका इतने दीर्घकालतक बिना किसी विद्रोहके रहना इस यातका पर्याप्त प्रमाण है कि अशोकके समयमें सारी प्रजा बहुत सुखी और स्मृद्धिशाली थी। धर्मलिपियों, प्रशस्तिओं, आज्ञाओं कानूनों और संहिताके रूपमें अशोक बहुत बड़ा साहित्य छोड़ गया है । इस साहित्यके तीन भाग किये जा सकते हैं। पहला वह जिसमें उसने राजाके धर्म बतलाये और अपने लिये नियम नियत किये हैं। दूसरा वह जो उसने अपने कर्मचारियों और आधीनस्थों के लिये बनाये हैं। तीसरा यह जो उसने प्रजाके लिये बनाया है। परन्तु यह यात विचारणीय है कि इस सारे साहित्यमे उसने कही भी • सामयिक राजाके प्रति प्रजाको राजभक्तिका उपदेश नही किया। उसकी सारी प्रशस्तियों और धर्मलिपियोंमें कही यह उल्लेख नहीं मिलता कि प्रजाको सामयिक राजाके प्रति किसी प्रकारकी भक्ति और आज्ञानुवर्तिताका प्रकाश फरना चाहिये। क्या उसको कभी इस यातकी आवश्यकताका अनुभव नहीं हुआ ? या वह यह समझता था कि जो राजा विशेषरूपसे अपनी राज- भक्तिका कानून बनाये यह राजा राज्य करनेके योग्य ही नहीं ! कुछ भी हो, यह पहली ऐसी है जिसका कोई स्पष्ट उत्तर हमारे पास नहीं।
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