३१२ , 3 धनाढ्य यनाना, जातियों और राष्ट्रोंकी अवस्थामें भी पैसा ही अनुचित और अपवित्र है जैसा कि व्यक्तियों और फुलोंकी भवस्थामें। हमें प्रसन्नता है कि हमको जातीयताको इस अनु. चित भाषका कोई प्रमाण नहीं मिलता। यह भी सत्य है कि स्वयं जातीयताका भाव भी हिन्दू आर्योंमें थोड़ा बहुत दुर्यल था। याजकल जातीयताका भाव संसारमें बहुत प्रयल हो गया है। भौर यदि हिन्दु आयोमें भी यह भाव उतना ही प्रबल होता तो कदाचित् भारतपर उतनी विपत्तियां न आती जितनी फि उस. पर आई। इस विपयमें इस पातकी आवश्यकता है कि माधु- निक भारतीय वर्तमान फालफी यूरोपीय जातियोंसे पुन्छ शिक्षा सीखें। दूसरोंका अपकार करनेवाली देशभक्ति एक जघन्य भाव है। यह सदाचार, आध्यात्मिकता तथा मनुष्यत्वका शत्रु मौर उनकी जड़ोंको काटनेवाला है। परन्तु शत्रुकी रोक थाम फरनेवाली देश-भक्ति ( Defensive Nationalism) एक प्रयोजनीय भाव है। इसपर किसी जातिका जातीय अस्तित्व और उत्कर्ष निर्भर है। अपनी सहज सीमाओंके भीतर प्रत्येक जातिका फर्त्तव्य है कि यह अपने समस्त स्तम्भोंकी भलाई और उन्नतिफी जिम्मेदार चने और क्या बाहरी या भीतरी सय प्रकारकी विपत्तियोंसे उनकी रक्षा करे। हिन्दू-शास्त्रों में और हिन्दु राजनीतिक पुस्तकोंमें इस भावफे पर्याप्त चिह मिलते हैं परन्तु देशके विस्तार और व्यक्तित्वके विचारने कभी उस भावको प्रथल नहीं होने दिया। यह भी स्मरण रहना चाहिये कि वर्तमान यूरोपमें भी जातीयताका भाव थाहुत प्राचीन नहीं है। यह विकास केवल उन्नीसवी.शता- दीफा है। आधुनिक कालके साहित्यिक अन्वेषणोंने इस भाव- की यहुत कुछ पुष्टि की है। भारतके धार्मिक, घंश और भाषा-
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