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पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/३५५

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हिन्दू और यूरोपीय सभ्यताको तुलना ३१३ सम्बन्धी भेदोंने भारतमें इस भाषको पुष्ट नहीं होने दिया, यह विचार उतना महत्व नहीं रखता जितना-कि समझा जाता है। यूरोपका इतिहास 'यताता है कि राष्ट्रीयता ग तो भाषाके एक होनेपर निर्भर है और न वंश तथा धर्म के एक होने. पर। हां, घंश, भाषा और धर्ममें एक होना राष्ट्रीयमावकी -पुष्टि गवश्य करता है। यूरोपके यहुतसे राजनीतिक टीकाकार और प्रामाणिक अध्यापफ अब इस यातको स्वीकार करते हैं कि राष्ट्रीयताके अस्तित्वके लिये जाति, भाषा और धर्मका एक होना आवश्यक नहीं। 'आजकलो संसार में ऐसे अनेक राष्ट्र हैं जिनके अन्दर राष्ट्रीयताके यह माने हुए लक्षण नहीं पाये जाते, फिर भी कोई व्यक्ति उनकी राष्ट्रीयतासे इन्कार नहीं कर सकता।। परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि जिन राष्ट्रोंमें वंश और भाषाकी एकता पायी जाती है उनमें यह एकता उनको शक्तिका एक प्रबल सांधन है। यूरोपीय सभ्यताया शिप्तर राजा या क्या राज्य (स्टेट) राज्यको स्वाधीनता है। यूरोपीय सभ्यता स्टेट कानूनसे ऊपर अर्थात राज्यकी शक्तियोंपर कोई सीमा नहीं लगाती। वास्तवमें राज्यको प्रत्येक माज्ञा कानू- नका पद रखती है और यूरोपीय सभ्यता राज्यके लिये यह उचित उदराती है कि यह अपनी आवश्यकताभोंके लिये प्रत्येक प्रकार- के कानूनों को तोड़ डाले। दिन्दू-सभ्यता इस सिद्धान्तको नहीं मानती। इसलिये हिन्दू राजत्वकालमें कमी राजाको पेसे कानून बनानेका अधिकार न था जो धर्मके विरुद्ध हों। कानूनके अनुसार न्याय करनाराजाओंका कर्तव्य ठहराया गया था, परन्तु इसके साथ स्वयं राजाका भी यह कर्तव्य था कि वह कानूनके