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पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/३५६

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३१४ भारतवर्षका इतिहास अनुसार चले । कभी किसी राजाको या किसी राज्यको ऐसी स्वतन्त्रता नहीं मिली जिससे राज्यप्रवन्ध-सन्यन्धी यातोंको छोड़कर उसको प्रजाके जीवनके सम्बन्धमें कानून बनानेका अधिकार दिया गया हो । हिन्दू राजनीतिक इतिहासमें हमें कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जहां किसी राजाने या फिसी राज- सभाने राज्यप्रबन्ध-सम्बन्धी धातोंको छोड़कर और किसी विषय- के सम्बन्धमें कानून बनाया हो।। हिन्दु राजनीति-विज्ञानका यह सिद्धान्त है कि राजा या राज्य प्रजाके लाभके लिये हैं न कि प्रजा राजा या राज्यके लाभके लिये । इसीलिये हिन्दू राजनीति विज्ञानमें चार बार यह यात दुहराई गई है कि यदि राजाका आचरण धर्मके विरुद्ध हो और वह अत्याचारी, व्यभिचारी या विलासी हो जाय तो प्रजाको न केवल यह अधिकार है कि वह इसको सिंहासनच्युत कर दे वरन् उसको यह भी अधिकार है कि वह उसको मृत्यु-दण्ड दे। यूरोपीय सभ्यता राज्यको सय कानूनोंसे उच्चतर समझती है। हिन्दू सभ्यता राज्यको कानूनके अधीन समझती थी। कानूनोंकी रचना और व्याख्या करने वाले धर्मात्मा विद्वान होते थे जिनका पवित्र और निःस्वार्थ जीवन उनके निर्णयोंके पवित्र और निष्पक्ष होनेकी प्रबल युक्ति थी। कानूनके कई माधार थे जैसे कि श्रुति, स्मृति और लोक प्रथा। कानूनमें कोई परिवर्तन तबतक धर्म और आचरणीय नहीं समझा जाता था जयतक लोग उसको अपने क्रियात्मक जीवन में धारण करके प्रचलित न कर देते थे। हिन्दुओंकी राज- संभायें आजकलकी जुडीशल कमेटियोंके सदश नये कानून नहीं गढ़ सकती थीं। पहुतसे.यूरोपीय लेखकोंफा यह विचार है कि भारतमें कमी प्रजातन्त्र नहीं हुआ। का भाव। इतिहासने इस विचारको, असत्य सिद्ध. कर भारतमें प्रजातन्त- .