भारतवर्षका इतिहास . होती थीं। उत्तर भारतके इतिहासमें इस प्रकारके विस्तारा. रमक उदाहरण कम मिलते हैं। परन्तु फिर भी यह मानी हुई यात है कि उत्तर भारत में भी ग्रामोंका प्रवन्ध प्रायःग्राम्य पञ्चा- यतोंके हाथमें था ! इसी प्रकार हिन्दू-शास्त्रों में ग्राम-समूहोंके प्रयन्धका जो चित्र खींचा गया है वह भी कपोल कल्पित नहीं है घरन् उसके अनुसार आचरण होता रहा है। उदाहरणार्थ, हिन्दू शास्त्रों में लिखा है कि प्रबन्धके प्रयोजनके लिये सौ ग्रामोंकासमूह एक इकाई गिना जाता था और फिर उसके ऊपर एफ सहस्रका इत्यादि इत्यादि । दक्षिणके इतिहास में इस प्रकारके बहुतसे दृष्टान्त मिलते हैं जिनसे इन ग्राम-समूहोंके प्रजातन्त्र गणोंका पता लगता है। यह सारा प्रबन्ध लगभग उसी प्रकारका था जैसा कि बाज फल सोवियट रूसमें है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि इन गणों के राजनीतिक और आर्थिक नियम भी सोवियट रूसकेसे थे। इसी प्रकार नगरों में भी ऐसे निर्वाचित गण थे जो नगरोंके भिन्न भिन्न अङ्गोंका प्रबन्ध करते थे। उनके प्रबन्धमें फैन्द्रिक शासनका बहुत कम हाय होता था । सव व्यवसायियों और शिल्पियोंकी अपनी निर्वाचित पञ्चायतें थीं जो अपने अपने व्यवसायों, शिल्पों और कलायोंका प्रवन्ध करती थीं । ये अपने अपने व्यवसायों और शिलों आदिके सामूहिक व्यक्तित्वको प्रतिष्ठित करती थीं। इसी प्रकार नगरका सारा म्युनिसिपल प्रबन्ध मिन्न भिन्न प्रकारके निर्वाचित समाजोंके हाथमें होता था। कैन्द्रिक शासनके हाथमें राज्यको परराष्ट्र नीति, सैनिक प्रयन्ध, बड़े बड़े अपराधोंका रोकना, राजकीय मकानों और सड़. कोंका विभाग, राजस्वोंका लगाना और वसूल करना आदि थे। वर्तमान यूरोपमें विचारों का झुकाव अब वर्तमान पार्लिमेण्टरी पद्धतिके विरुद्ध होता जाता है। राजनीति-विज्ञानकी प्रायः
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