३२० -भारतवर्पका इतिहास हैं कि कौटिल्य के अर्थशास्त्रमें जिस प्रकारके दासोंका उल्लेख है ये यूरोप और अमरीकाके दासोंसे बहुत भिन्न थे। प्रथम तो मर्यशास्त्र यह कहता है कि कोई "आर्य” किसी अवस्था दास नहीं बनाया जा सकता। उस समय उत्तर भारतमें लगभग सभी अधिवासियोंको "यार्य" कहते थे। और यदि जनताका कोई भाग ऐसा था जिसपर "मार्य" शब्द लागू न हो सकता .. था तो यह अत्यन्त ही अल्प था और यह इतना अल्प था कि विदेशी दून और पर्यटक उसको पहचान न सकते थे। दूसरे किसी हिन्दू-शास्त्र में दासोंफे कय-विक्रयकी भाशा नहीं दी गई। दास केवल चे गिने जाते थे जो अपने ऋणोंको न चुकाने के कारण या लड़ाई में बन्दी हो जाने के कारण “दास" बन जाते थे। परन्तु इन दासोंके क्रय-विक्रयका निषेध था और प्रत्येक दासको यह अधिफार था कि चद अपना ऋण चुकाकर या किसी अन्य रीतिसे अपनी स्वतन्त्रता प्राप्त कर ले। फिर उसको पूर्ण अधि.. कार मिल जाते थे। ऐसे दास भी अपने स्वामीके परिवार के सदस्य समझे जाते थे और उनसे दुर्व्यवहार करना अपराध था। कुछ भी हो भारत के इतिहासमें ऐसा कोई भी काल नहीं हुथा कि जय दासोंकी संख्या आर्योया स्वतन्त्र लोगोंकी संख्या- से अधिक हो। इसके विपरीत यूनानी और रोमन प्रजातन्त्र राज्यों में प्रायः सदा ही ऐसा रहा । यहाँ तक कि उनमेंसे कुछ जातियोंमें स्वतन्त्र मनुष्य केवल संफड़ों या सहस्रों होते थे और दास सहस्रों या लाखोंकी संख्यामें थे। यूरोपीय देशोंका यद्यपि देखनेको हम पार्लिमेंटरी शासनके पार्लिमेंटरी बहुत प्रशंसक हैं परन्तु यूरोपमें कुछ कालतक शासन। निवास करने और यूरोपीय पार्लिमेंटोंकी. कार्यवाहीको ध्यानपूर्वक अध्ययन करनेके,
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