हिन्दू और यूरोपीय सभ्यताको तुलना ३३६ जाती। पीछेके कालके शास्त्रोंमें चूंकि स्त्रियोंका पद गिरा दिया गया है इसलिये शास्त्रकारोंको चार यार यह लिखनेको आवश्यकता पड़ती है कि खियोंका सम्मान करना और उनको प्रसन्न रखना पुरुपोंका कर्त्तव्य है । इन स्मृतियोंमें हमें दो प्रकार- के परस्पर विरोधी विचार मिलते हैं। कुछ स्थलोंपर स्त्रियोंको भादर, सम्मान और सेवाके योग्य ठहराकर उनकी पूजा करना धर्म बतलाया गया है । कुछ दूसरे स्थलोंपर उनके दुर्गुण बता- कर उनको सदा अधीन और दवाये रखनेकी शिक्षा दी गई है। इसी प्रकार स्त्रियोंकी शिक्षाके सम्बंध भी स्त्री-शिक्षा। परस्पर विरोधी प्रमाण मिलते हैं । प्राचीन कालमें स्त्रियोंकी शिक्षापर कोई बंधन न था। हिन्दू-स्त्रियोंकी प्राचीन कालमें या हिन्दुओंके उत्कर्ष- कालमें स्त्रियोंकी मार्थिक दशा क्या थी, इस आर्थिक दशा। विषय में सम्मति स्थिर करनेके लिये पर्याप्त सामग्री नहीं है। यह प्रकट है कि उस समयमें परदेको प्रथा न थी। अतएव इस समय परदेको प्रथाके कारण जो आर्थिक बंधन प्रतिष्ठित हो गये हैं ये विद्यमान न थे। परन्तु साथ ही स्त्रियोंपर वे मार्थिक उत्तरदायित्व भी न थे जो यूरोपमें देख पड़ते हैं। यूरोपीय स्त्रियोंको अवस्थामें जो बातें आपत्तिजनक जान पड़ती हैं वे आजकल की यूरोपीय सामाजिक और आर्थिक पद्धतिका अवश्यम्भावी परिणाम हैं। भाजसे एक शताब्दी पहले यूरोपीय स्त्रियोंको कानूनकी दहिसे सम्पत्ति रखने या पैदा करने के अधिकार न थे जो इस समय हैं. अथवा जो प्राचीन कालसे हिन्दू स्त्रियोंको प्रात हैं | कोड नेपोलियनके अनुसार किसी विवाहिता स्त्रीको सम्पत्ति रखनेका अधिकार न था। उसकी अपनी निजकी सम्पत्तिपरभी उसके पतिको पूरा अधिकार था।
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