हिंसा, अत्याचार, लोभ, द्वेप और नाना प्रकारकी पैशाचिक कामनायें हैं। यूरोप और अमरीकाके बहुतसे पुण्यात्मा समाज अपनी सभ्यताके इस अङ्गार लजित है और दिन रात इसी चिन्तामें हैं कि इस सभ्यताका अन्त क्या होगा। परन्तु अभी- तक उनको कोई उपाय नहीं मिला और न तवतक मिलेगा जबतक कि इस सभ्यताकी नैतिक और आध्यात्मिक नीवें न बदली जायंगी। यूरोप और अमरीकामें आजके समयमें .बहुत- से पुण्यात्मा मनुष्य भी हैं। हमको उनके उच्च चरित्र और आध्यात्मिकतामें कोई सन्देह नहीं है। हमको उनके प्रति सच्ची भक्ति है। हम उनका उतना ही सम्मान करते हैं जितना कि • भारतके प्राचीन ऋषियों और महर्षियोंका। परन्तु हमको उन- की विवशता और असमर्थतापर दया आती है। उनका शब्द अरण्यरुदनके समान है जिसकी प्रतिध्वनि उनके अपने कानोंमें आकर समाप्त हो जाती है, परन्तु जिसका कोई प्रभाव बनके वृक्षों और जङ्गलके जीवोंपर नहीं होता। यूरोपकी सभ्यता अपना संसारमें बहुत सी सभ्यतायें हो चुकी हैं और हमारा विचार है कि युग बदलनेवाली है। यूरोपीय सभ्यता भी अय अपना युग समाप्त करनेवाली है। उसके स्थानमें एक नवीन सभ्यता उत्पन्न होनेवाली है जो पूर्वी आध्यात्मिकता और पश्चिमी विज्ञानका मिश्रण होगी। यद्यपि हमें अनेक वार सन्देह हो जाता है कि यूरोपीय सभ्यतापर पूर्वी आध्यात्मिकताका कलस चढ़ाना या पूर्वी आध्यात्मिकताके भवनको पश्चिमी विज्ञानके आधारपर निर्माण करना सम्भव भी है कि नहीं। भारतके प्रसिद्ध कवि रवीन्द्रनाथ रवीन्द्रनाथ ठाकुरके ठाकुर जय सन् १९१७ ई० या १६१८ई० में जापान पहुंचे तो जापानके अधि- विचार। T
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