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पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/४०६

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भारतवर्षका इतिहास पुस्तकोंमें जहां जहां राजाको परमात्माका स्वरूप वर्णन किया गया है वहाँ राजासे तात्पर्य प्रत्यक ऐसी सत्तासे है जिसको प्रजा राज्य या शासन करनेके लिये निर्वाचित या नियत करे। इसका तात्पर्य यह नहीं कि जो व्यक्ति भी राजा हो, चाहे वह वे-ईमानीसे या बलात्कार राजा बन गया हो, या अपने पाच- रणकी दृष्टिसे दुराचारी, दुष्कम्मी और प्रजापीड़क हो तो भी वह परमात्माका स्वरूप होता है। इसी कारण जव ब्राह्मणों के समयमें राज्यफा अधिकार क्षत्रियोंको दिया गया तो क्षत्रियोंको भी परमात्माका स्वरूप बताया गया । मनुस्मृति कहती है कि जय अराजकताके कारण लोग मारे डरके चारों ओर बिखर गये तो ब्रह्माने संसारकी रक्षाके लिये राजाको उत्पन्न किया और निम्नलिखित सनातन मात्रायें प्रविष्ट "को अर्थात् आगे लिखे देवताओंका अंश उसके अन्दर प्रविष्ट किया:-इन्द्र, अनल, यम, अर्क, अग्नि, वरुण, चन्द्र और कुवेर। महाभारतके शान्तिपर्वमें यह भी कहा गया है कि राजा भिन्न भिन्न अवसरोंपर भिन्न भिन्न रूप धारण करता है। वह कमी अग्नि हो जाता है, कभी आदित्य, कभी मृत्युं, कभी चैध- वण और कमी यम। "राजा परमात्माका राजामोंको परमात्माका स्वरूप वर्णन स्वरूप है," इसका करनेमें शास्त्रका प्रयोजन यह है कि उनके उप कर्तव्योंकी मोर सदा उनका ध्यान पार्य मर्य। दिलाया जाये। बोसिदा स्थडोंपर वेदों, महामारत और रामारणमें, सूत्रों में मोर मीति-शास्त्रोंमें इस यातका उल्लेख है कि यदि राजा भपने कर्तव्योंकी उपेक्षा की .६ो भाषा