हिन्दुओंकी राजनीतिक पद्धति ३६५ तो यह इस यातका अधिकारी नहीं रहता कि लोग उसको राजा समझे और उसकी अधीनता स्वीकार करें। जिन अथोंमें यूरोपके राजा अपने आपको ईश्वरकी ओरसे नियुक्त किया हुआ समझते थेचे सिद्धान्त हिन्दू-शास्त्रोंने कभी स्वीकार नहीं किये । यूरोपके राजाओंने स्पष्टरूपसे यह प्रतिज्ञा की थी कि वे अपने पुण्य और पापके लिये किसी व्यकिके सामने उत्तरदाता नहीं हैं और उनके कमीपर कोई व्यक्ति आपत्ति नहीं कर सकता। उदाहर- णार्थ, इंग्लैंड-नरेश प्रथम जेम्सने सन् १६०३ ई० में प्रकट रूपसे यह कहा था कि जिस प्रकार यह किसीका अधिकार नहीं कि यह ईश्वरके अधिकारोंपर आपत्ति करे, और जिस प्रकार पर- मेश्वरको मानना नास्तिकता है, उसी प्रकार यह प्रश्न करना उचित नहीं कि राजा क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता । यूरोपके अन्य राजाओंने भी भिन्न भिन्न समयोंमें इसी प्रकारको प्रतिज्ञायें उपस्थित की, और इसके उत्तरमें फांसके दार्श निक रोसोने इस सिद्धान्तका प्रचार किया कि वास्तवमें राजाओं: के अधिकार उस आभ्यन्तर प्रतिज्ञासे उत्पन्न होते हैं जो प्रत्येक राजा अपनी प्रजाके साथ करता है। उसकी सम्मतिमें राज्यका मूल प्रतिज्ञासे है। हिन्दू-शास्त्र में किसी राजाको ऐसे अधिकार नहीं दिये गये जिनसे उसके लिये अत्याचार या पाप करना भी उचित हो। डाकूर यन्दोपाध्यायके कथनानुसार भारतमें राजा. का पद एक राजनीतिक पद था। राजा जातिका मुखिया समझा जाता था न कि देशका स्वामी। राज्यका अस्तित्व जनताके कल्याणके लिये था। राजा उस समयतक राज्यका अधिकारी या अफ़सर गिना जाता था जबतक कि वह उस कल्याणका ध्यान रखता था। घेदमें राजाको विशाम्पति अर्थात् जनताका रक्षक कहा गया है। महाभारतमें यह भी लिखा है कि जो राजा
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