पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/४०८

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HO भारतवर्षका इतिहास 1 रक्षा नहीं कर सकता उससे कुछ लाभ नहीं। यदि राजा अपने कर्तव्य-पालनमें त्रुटि दिखलाये तो दूसरा व्यक्ति, चाहे वह किसी जातिका क्यों न हो, राजपदको ग्रहण कर ले*। राजाको गद्दीसे अलग कर शुक्र-नीतिमें भी दूसरे अध्यायके देनेका अधिकार। श्लोक २३४ में यह कहा गया है कि यदि राजा आचार, धर्म, और शक्ति- का शत्रु हो और स्वयं अधर्माचारी हो तो लोगोंको चाहिये कि उसे राज्यका नाश करनेवाला समझकर निकाल दें और राज्यकी रक्षांके लिये पुरोहितको चाहिये कि जनताकी स्वीकृतिसे उसके स्थानपर राजपरिवारके किसी दूसरे धर्मात्मा मनुष्यको गद्दीपर विठला दे। डाफर बन्योपाध्याय अपनी पुस्तकके पृष्ठ ७१ में लिखते हैं कि हिन्दू शास्त्रकार राजाको देवता नहीं समझते थे, वरन् उसे नर-देवता कहते थे। शुक्र नीतिमें अधर्मी राजाको राक्षसके समान कहा गया है। उसमें तीन प्रकारके राजा यत- लाये गये हैं अर्थात् सात्विक, राजसिक, और तामसिक; और तामसिफ और राजसिक राजाको निन्दा करते हुए उनको नरकगामी कहा गया है। राजा कानूनके इसके अतिरिक्त, हिन्दू-शास्त्रोंमें इस यातका यथेष्ट प्रमाण मिलता है कि राजाके लिये भी 1 कानून और शास्त्राज्ञाका पालन करना वैसा ही अनिवार्य था जैसा कि दूसरे,मनुष्योंके लिये । चौनी पर्यटक हा नसाङ्गने राजा बिम्बिसारकी आगे दी हुई कथा लिखी है :-राजाने जब यह देखा कि राजधानीमें भाग बहुत लगती है तो उसने आगसे अपने नगरको बचाने के लिये • मानिध्याय ७८, शोक १६, और मनुस्मति बंध्याय ८, भोक १११- अधीन था। .