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पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१२०

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2 प्राचीनलिपिमाला. लिपिपत्र पां. यह लिपिपत्र गंगावंशी राजा वजूहस्त के पाकिमेडी के दानपत्रा से तय्यार किया गया है. इस दानपत्र का लेखक उत्तरी और दक्षिणी शैली की भिन्न भिन्न लिपियों का ज्ञाता रहा हो और उसने इसमें अपने लिपिसंबंधी विशेष ज्ञान का परिचय देने के विचार से ही मिन्न मिन लिपियों का मिश्रण जान बूझ कर किया हो ऐसा अनुमान होता है. प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डॉ. कीलहॉर्न ने इस दानपत्र का संपादन करते समय इसके अचरों की गणना कर लिखा है कि प्रायः ७३० अचरों में से ३२० नागरी में लिखे हैं और ४१० दक्षिणी लिपियों में'. प्राचीन लिपियों के सामान्य पोष- वाले को भी इस लिपिपत्र के मूल अक्षरों को देखते ही स्पष्ट हो जायगा कि उनमें म (पहिला), भा ( पहिला), ई, उ, ऋ, क (पहिले तीन रूप ), ग ( पहिला), च (पहिला), ज (पहिला), (दूसरा), ए (पहिला), न (पहिला), द ( पहिला व दूसरा), न (पहिला ), प (पहिला), म (पहिला), म (पहिला), र (पहिला व १), ल (पहिला), व (पहिला), श (पहिला व दूसरा), ष (पहिला), स (पहिला) और ह (पहिला व दूसरा) नागरी के ही हैं. दक्षिणी शैली के अक्षरों में से अधिकतर तेलुगु-कनड़ी हैं और ग्रंथ लिपि के अक्षर कम हैं जैसे कि 'ग' (पांचवां), ण (चौथा और पांचवां) और म ( दूसरा). लिपिपत्र ५६वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- भों स्वस्त्यमरपुरानुकारिणः सर्वर्तुसुखरमणी- याहिजयवतः कलिङ्गा(क)नगरवासकान्महेन्द्रापलामणशिख- रप्रतिष्ठितस्य सचराचरगुरोस्सकलभुवननिर्माणैक- सूचधारस्य शशाचूडामणेभंगवतो गोकर्णवामि- -तामिळ लिपि. ईम की सातवीं शताब्दी से (लिपिपत्र ६०-६२) यह लिपि मद्रास के जिन हिस्सों में प्राचीन ग्रंथ लिपि प्रचलित थी वहां के तथा उक्त इहाते के पश्चिमी तट अर्थात् मलबार प्रदेश के तामिल भाषा के लेग्यों में पल्लव, चोल, राजेन्द्रचोड भादि पूर्वी चालुक्य एवं राष्ट्रकूट आदि वंशों के शिलालेग्वों तथा दानपत्रों में एवं माधारण पुरुषों के लेखों में ई.स. की सातवीं शताब्दी से मिलती है. इस लिपि में 'असे'औ" तक के स्वर, और व्यंजनों में केवल कर, च, त्र, ट, ण, न, न, प, म, य र, ल, व, ळ, क, र और ण के चिक हैं. ग, ज, इ. द. य और श के उच्चारण भी 9 । '...जि . पृ २२२ और ०२३ के बीच के टों से जि ३, पृ २२० अब तक जितन लेख प्राचीन तामिळ लिपि के मिल है उनमें 'श्री' अक्षर नहीं मिला परंतु संभव है कि जैसे के सिर की दाहिनी ओर मीचे को मुकी हुई खाड़ी लकीर लगा कर 'ऊ' बनाया जाता था ( देखा, लिपिपत्र ६० में परसववंशी गजा मंदिवर्मन् के कशाकृडि के दानपत्र के अक्षरों में ) वैसा ही चिक 'मो' के साथ जोड़ने से 'मी' बनता होगा क्योकि वर्तमान तामिळ में जो चिक 'ऊ' बनामे में 'उ' के मागे लिखा जाता है वही 'मौ' बनाने में 'मो' के मागे रक्सा जाता है जो उक्त प्राचीन चिकका रूपांतर ही है.