पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१२१

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तामिळ लिपि. ६५ तामिळ भाषा में मिलते हैं परंतु उन अवरों के लिये स्वतंत्र विस नहीं है. 'ग' की ध्वनि 'क' से, 'ज' और 'श' की 'च' से, 'द' की 'त' से और 'व' की 'प' से व्यक्त की जाती है जिसके जिथे विशेष नियम मिलते हैं संयुक्त व्यंजन एक दूसरे से मिला कर नहीं किंतु एक दूसरे के पास लिखे जाने हैं और कई लेखों में हलंत और सस्वर व्यंजन का भेद नहीं मिलता, तो भी कितने एक लेखों में संयुक्त व्यंजनों में से पहिले के ऊपर बिंदी, वक या तिरछी रेखा लगा कर हलंत को स्पष्ट कर जमलाया है. अनुस्वार का काम अनुनासिक वर्षों से ही लिया जाता है. इस लिपि में व्यंजन वर्ण केवल १८ ही है जिनमें से चार (ळ,ळ, र और ण) को छोड़ देवें नो संस्कृत भाषा में प्रयुक्त होने वाले व्यंजनों में से तो केवल १४ ही रह जाते हैं ऐसी दशा में संस्कृत शब्द इसमें लिग्वे नहीं जा सकने, इसलिये जब उनके लिखने की भावश्यकता होती है तब वे ग्रंथलिपि में ही लिग्वे जाते हैं. इमलिपि के अधिकार प्रदर ग्रंथ लिपि से मिलने हुए ही हैं और ई, क, और र आदि अक्षर उमरी ब्रामी से लिये हों ऐसा प्रतीत होता है; क्योंकि उनकी बड़ी लकीरें सीधी ही हैं. नीचे के अंत से बाई ओर मुड़ कर ऊपर को बड़ी हुई नहीं हैं. अन्य लिपियों की नाई इसमें भी समय के साथ परिवर्तन होते होते १० वीं शताब्दी के आस पास कितने एक और १४ वीं शताब्दी के नाम पास अधिकतर अदर वर्तमान तामिळ से मिलने जुलने हो गये. फिर थोड़ा सा और परिवर्तन होकर वर्तमान तामिळ लिपि बनी. लिपिपत्र १ मे ५६ तक के प्रत्येक पत्र में पाठकों के अभ्याम के लिये मूल शिलालेखों या दानपत्रों में पंक्तियां दी हैं परंतु लिपिपत्र ६० से ३४ तक के पांच लिपिपत्रों में वे नहीं दी गई, जिसका कारण यही है कि मंस्कृतज्ञ लोग उनका एक भी शब्द ममझ नहीं मकते. उनको केवल वे ही लोग समझते हैं जिनकी मातृभाषा तामिळ है या जिन्होंने उक्त भाषा का अध्ययन किया है तो भी बहुधा प्रत्येक शताब्दी के लेवादि से उनकी विस्तृत वर्णमालाएं बना दी हैं जिनसे तामिळ जाननेवालों को उस लिपि के प्राचीन लेवादि पड़ने में सहायता मिल मी. लिपिपत्र ६०वां यह लिपिपत्र पल्लववंशी राजा परमेश्वरवर्मन् के कूरम के दानपत्र' तथा उसी वंश के राजा नंदिवर्मन के कशाकड़ि और उदयेंदिरम् के दानपों के अंत के नामिळ अंशों से तयार किया गया है. करम के दानपन के अवरों में से अ, आ, इ, उ, ओ, च, त्र, प. त, न, प, य और व (पहिला) ग्रंथ लिपि के उक्त अतरों की शैली के ही हैं. 'अ' और 'मा' में इतना ही अंतर है कि उन की बड़ी लकीरों को ऊपर की तरफ दोहराया नहीं है. इस अंतर को छोड़कर इस ताम्रपत्र के 'अ' और लिपिपत्र ५२ में दिये हुए मामल्लपुरम् के लेखों के 'अ' (दूसरे) में बहुत कुछ ममा- नता है. क, ट, र और व (दूमरा ) उसरी शैली की ब्राह्मी लिपि से मिलने हुए हैं कशाकूडि के दानपत्र का 'अ' चरम के दानपत्र के 'अ' की ग्रंथि को लंबा करने से बना है. उदयेंदिरम् के दानपत्र में हलत और सस्वर व्यंजन में कोई भेद नहीं है. लिपिपत्र ६१ वा यह लिपिपत्र पल्लवतिलकवंशी राजा दतिवर्मन् के समय के तिरवेळळरै के लेख', राष्ट्रकूट ., साजि ३. भाग ३, सेट १२, पंक्ति ५७-E से. ५ हु, साजि. ३, भाग ३, प्लेट १४-५, पंक्ति १०५-१३३ से .ई.एँ; जि ८.पृ २७७ के पास के लेट की पंक्ति १०५-१० से. ४ . जि. ११, पृ. १५७ के पास के प्लेट से.