पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१२३

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खरोष्ठी लिपि tu यही है कि बाहर की ग्रंथि भीतर की ओर बनी है. 'इ' कूरम के दानपत्र के' के नीचे के अंश को बाई मोर न मोड़ कर दाहिनी ओर मोड़ने और घसीट लिखने से बना हो ऐसा प्रतीत होता है. उ, क,क, च, मद, ण, त, न, प, म, य, र, ल, व, ळ और र लिपिपत्र ६० में दिये हुए उक्त अक्षरों के घसीट रूप ही हैं. जटिलवर्मन् के दानपत्र का ई प्राचीन सामिळ 'ई (देखो, लिपिपत्र ६२) का घसीट रूप माल है. 'ग' और 'ओ' लिपिपत्र ६० में दिये हुए उक्त अक्षरों के ही ग्रंथिवाले या घसीट रूप है. लिपिपत्र ६४ वां यह लिपिपत्र मांवळिळ से मिले हुए श्रीवल्लवंगौडे के कोल्लम् (कोलंब ) संवत् १४६ (ई. म. ९७३) के दानपत्र', कोचीन से मिले हुए भास्कररविवर्मन् के दानपत्र' और कोयम् से मिले हुए वीरराघव के दानपत्र' से तय्यार किया गया है. इसकी लिपि में लिपिपत्र ६३ की लिपि से जो कुछ अंतर पाया जाता है वह स्वरा से लिग्वे जाने के कारण ही समयानुसार हुआ है. कोट्यम् के दानपत्र में जो ई. स. की १४ वीं शताब्दी के आसपास का माना जा सकता है, 'ए' मोर 'मो' के दीर्घ और इस्व रूप मिलते हैं वर्तमान कनड़ी, तेलुगु, मलयाळम् और तामिळ लिपियों में भी 'ए' और 'ओ' के दो दो रूप अर्थात् इस्व और दीर्घ मिलते हैं, परंतु १४वीं शताब्दी के भासपास तक के लेलुगु-कनड़ी, ग्रंथ और तामिळ लिपियों के लेग्वों में यह भेद नहीं मिलता; पहिले पहिल यह वीरराघव के दानपत्र में ही पाया जाता है. अतएव संभव है कि इस भेद का ई.स.की १४ वीं शताब्दी के आसपास तामिळ लिपि में प्रारंभ हो कर दसरी लिपियों में उसका अनुकरण पीछे से हुआ हो. नागरी लिपि में 'ए और 'ओ में ट्रस्व और दीर्घ का भंद नहीं है इस लिये हमने 'ए' और 'ओ' के ऊपर माड़ी लकीर लगा कर उनको दीर्घ 'प' और दीर्घ 'ओ' के सूचक बनाया है. १८-खरोष्ठी लिपि. । स पूर्व की चौथी शताम्नी सई म की तीसरी शताई। तक । लिपिपत्र १५ से ७० ) खरोष्ठी लिपि आर्य लिपि नहीं, किंतु अनार्य (सेमिटिक) भरमहक लिपि से निकली हुई प्रतीत होती है (दग्वो, ऊपर पृ ३४-३६). जैसे मुसलमानों के राज्यसमय में ईरान की फ़ारसी लिपिका हिंदुस्तान में प्रवेश हुमा और उसमें कुछ अक्षर और मिलाने से हिंदी भाषा के मामूली पढ़े लिखे लोगों के लिये काम चलाऊ उर्दू लिपि धनी वैसे ही जब ईरानियों का अधिकार पंजाब के कुछ अंश पर हुमा तब उनकी राजकीय लिपि अरमहक का वहां प्रवेश हुमा, परंतु उसमें केवल २२ अक्षर, जो मार्य भाषाओं के केवल १८ उच्चारणों को व्यक्त कर सकते थे, होने तथा स्वरों में इस्व दीर्घ का भेद और स्वरों की मालाओं के न होने के कारण यहां के विद्वानों में से खरोष्ठ या किसी और ने १. जि, पृ. २३६ के पास के प्लेट से. १. ऐ.जि ३, पृ.७२ के पास के प्लेट के ऊपरी अंश से . : जि. ४. पृ. २६६ के पास के प्लेट से.