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पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१२४

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८ प्राचीमलिपिमाला. यह लिपि नये अक्षरों तथा हस्व स्वरों की मात्रामों की योजना कर मामूली पड़े हुए लोगों के लिये, जिनको युद्धा- शुद्ध की विशेष आवश्यकता नहीं रहती थी, काम चलाऊ लिपिषना दी ( देखो, ऊपर पृ. ३५-३६). यह लिपि फारसी की नाई दाहिनी ओर से बाई भोर लिखी जाती है और मा, ई, ऊ, ऋ, ऐ और औ स्वर नथा उनकी मात्राओं का इसमें मर्वथा अभाव है. संयुक्त व्यंजन भी बहुत कम मिलते हैं, जिनमें भी कितनं एक में तो उनके घटक व्यंजनों के अलग अलग रूप स्पष्ट नहीं होते किंतु उनका एक विलक्षण ही रूप मिलता है, जिससे कितने एक संयुक्त व्यंजनों का पड़ना अभी नक संशययुक्त ही है. इसके लेग्च भारतवर्ष में विशेष कर पंजाब से ही मिले हैं अन्यत्र बहुत कम. ईरानियों के राजत्वकाल के कितने एक चांदी के मोटे और महे सिकों, मौर्यवंशी राजा अशोक के शहयाज़गड़ी और मान्सरा के चटानों पर खुदे हुए लेखों, एवं शक, क्षत्रप, पार्थिअन् और कुशनवंशी राजाओं के समय के बौद्ध लेखों और बाकदिअन् ग्रीक, शक, क्षत्रप, पार्थिमन्, कुशन, औदुंबर आदि राजवंशों के कितने एक सिकों पर या भोजपत्रों पर लिखे हुए प्राकृत पुस्तकों में मिलती है. इस लिपि के शिलाओं आदि पर खुदे हुए लेग्यों की, जो अब तक मिल हैं, संख्या बहुत कम है ई. स. की तीसरी शतान्दी के पास पास नक इस लिपि का कुछ न कुछ प्रचार पंजाब की तरफ़ बना रहा जिसके बाद यह इस देश से सदा के लिये उठ गई और इसका स्थान ब्राधी ने ले लिया (विशेष वृत्तान्त के लिये देग्वी, ऊपर ३१-३७) लिपिपत्र५ वां यह लिपिपत्र मौर्यवंशी राजा अशोक के शहबाजगढ़ी और मान्सेरा के लेम्वों से तय्यार किया गया है. उक्त लेवों मे दिये हुए अक्षरों में मब स्वर 'अके माथ स्वरों की मात्रा लगा कर ही बनाये हैं और कितने एक अक्षरों की बाई ओर झुकी हुई बड़ी लकीर के नीचे के मंत को मोड़ कर कुछ ऊपर की ओर यड़ाया है [ देग्यो, अ (तीसरा ), 'ब' (दमा), 'ग(दुसरा), 'चौं (नीमरा ), 'ह (दसरा), 'न' (चौथा ), 'प (दमरा ), 'क' (इमरा). 'ब' (तीसरा), 'र' (नीमरा ). 'व' (दसरा), और 'श (दमरा)]. 'ज' (दमरे) की खड़ी लकीर के नीचे एक माड़ी लकीर और जोड़ी है. 'म' (चौर) की बाई ओर अपूर्ण वृत्त और 'म' (पांचवें ) के नीचे के भाग में तिरछी अधिक लगाई है. 'र' (दमरे ) की निरछी बड़ी लकीर के नीचे के अंत मे दाहिनी ओर एक आड़ी लकीर' और लगाई है यह लकीर मंयुक्ताक्षर में दम आनेवाले का चिक है परंतु उक्त लेत्रों में कहीं कहीं यह लकीर विना आवश्यकता के भी लगी हुई मिलती है और वर्डक से मिल हुए पीनल के पात्र पर के लेग्य में ना उमकी भरमार पाई जाती है जो उक्त लम्वों के लेन्थकों का शुद्ध लिग्बना न जानना प्रकट करनी है. इन लेग्यों में 'इ की मात्रा एक बड़ी या तिरछी । खगेष्ठी लिपि के लला के लिये देखा ऊपर पृष्ठ ३२. टिप्पण , श्रार पृष्ठ ३३, टिप्पण १.२. गे: जि १, पृ १६ के पास का लेट जप. म. में छपे एप मिस फ्रेंच विद्वान सेनाट के नोटस डी पपिग्राफ इंडियन'। मंन्या नामक लख के अंत के मान्मंग के लेगों के लट और 'डाइरेक्टर जनरल ऑफ आर्कि- पालॉजी इन इंडिया के भंज हुए अशोक के शहबाज़गी के लेखों के फोटो मे • . जि . पृ१ के पाम के सेट की पंक्ति में वनं प्रिया प्रियद्रांश ग्य' में 'ग्य के र' के नीचर' की सूचक जो माड़ी लर्कार लगी है वह बिलकुल स्पष्ट है यहां 'र के साथ दूसग 'र' जुड़ हो नहीं सकता ऐसी दशा में इम लकीर को या तार'का अंश ही या निग्धक मानना पड़ता हे अशोक के उक्त लेखों में ऐसी ही 'मूचक निरर्थक लकी अभ्यत्र जहां र की संभावना नहीं - वहां भी लगी हुई मिलती है । जैसे कि उक्त पहिली पंक्ति में सत्रप्रपंडनि' में 'प' माथ, जहां पपंड (पापंड) शब्द में 'ग' का सर्वथा अभाव है आदि) अब तक गजपूताना के कई महाजन लोग जिनको अक्षरों का ही ज्ञान होता है और जो संयुक्ताक्षर तथा स्वर्गकी मात्राओं का शुद्ध शिलना नहीं जानने. अपनी लिखावट में ऐसी अगुडियां करने के अतिरिक्त स्वर्ग की मात्राएं या तो