भूमिका. इस देश पर सर्कार अंग्रेजी का राज्य होने पर देश भर में फिर शांति का प्रचार हुआ, कल- कत्ता सार अंग्रेज़ी की राजधानी बना और विद्या का सूर्य, जो कई शताब्दियों से मस्त सा हो रहा था, फिर उदय हुआ. पश्चिमी शैली से अंग्रेज़ी की पढ़ाई शुरू होने के साथ संस्कृत और देशी भाषाभों की पढ़ाई भी होने लगी. कई अंग्रेजों ने केवल विद्यानुराग से संस्कृत पढ़ना शुरू किया और सर विलिमम् जोन्स ने शाकुंतल नाटक का अंग्रेजी अनुवाद किया जिससे कविकुलगुरु कालि- दास को यूरोप के सर्वोत्तम कवि शेक्सपिभर का पद मिला इतना ही नहीं किंतु हिंदुओं का संस्कृत साहित्य कितनी उच्च कोटि का है यह दुनिया को मालूम हुआ और क्रमशः यूरोप में भी संस्कृत का पठनपाठन शुरूहुआ. ई. स. १७८४ में सर विलिमम् जोन्स के यत्न से एशिया के इतिहास, शिल्प, माहित्य आदि के शोध के लिये कलकत्ते में 'एशियाटिक सोसाइटी बंगाल' नाम का समाज स्थापित हुमा. तब से ही भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास की खोज का प्रारंभ हुआ मानना चाहिये. कई अंग्रेज़ और देशी विद्वानों ने समाज का उद्देश सफल करने को लेख लिखे जो ई. स. १७८८ में 'एशिभाटिक रिसर्चेस' ( एशिभासंबंधी शोध ) नामक ग्रंथमाला की पहिली जिल्द में प्रकाशित हुए और ई. स. १७६७ तक उक्त ग्रंथमाला की ५ जिन्दं प्रकट हुई. ई. स. १७६८ में उनका नया संस्करण चोरी से ही इंग्लंड में छापा गया. उनकी मांग यहां तक बड़ी कि पांच छः परसों में ही उनके दो और मंस्करण छप गये और ऍम. ए लेबॉम् नामक विद्वान् ने 'रिमर्चेज एशियाटिकम' नाम से उनका फ्रेंच अनुवाद भी छाप डाला जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा हुई. ई. स. १८३६ तक उक्त ग्रंथमाला की २० जिल्दें छप गई फिर उमका छपना तो बंद हो गया परंतु ई. स. १८३२ से 'जर्नल ऑफ दी एशिवा- टिक मोसाइटी ऑफ बंगाल' नामक उक्त समाज का सामयिक पत्र निकलना प्रारंभ हुमा जो अब तक माक्षर वर्ग की बड़ी सेवा कर रहा है इस प्रकार उक्त ममाज के द्वारा पशिआ के प्राचीन शोध की भोर यूरोप में भी विधानों का ध्यान गया और ई स. १८२३ के मार्च में लंडन नगर में उसी उद्देश से 'रॉयल एशियाटिक सोसा- इटी नामक ममाज स्थापित हुमा और उसकी शाखाएं यंबई और सीलोन में भी स्थापित हुई. ऐमे ही ममग समय पर फ्रान्स, जर्मनी, इटली आदि यूरोप के अन्य देशों तथा अमेरिका, जापान आदि में भी एशियामपंधी भिन्न भिन्न विषयों के शोध के लिये समाज स्थापित हुए जिनके जनलों (साम- यिक पुस्तकों ) में भारतवर्ष के प्राचीन शोधमंबंधी विषयों पर अनेक लेग्व प्रकट हुए और होते ही जा रहे हैं. यूरोप के कई विद्वानों ने चीनी, तिव्बती, पाली, अरबी भादि भाषाएं पढ़ कर उनमें से जो कुछ मामग्री भारतवर्ष के प्राचीन इतिहाम पर प्रकाश डालनेवाली थी वह एकत्रित कर बहुत एशियाटिक सोसाइटी बंगाल के द्वारा कार्य प्रारंभ होते ही कई विद्वान् अपनी अपनी रुचि के अनुसार भिन्न भिन्न विषयों के शोध में लगे कितने एक विद्वानों ने यहां के ऐतिहासिक शोध में लग कर प्राचीन शिलालेख, दानपत्र और सिक्कों का टटोलना शुरू किया. इस प्रकार भारवर्ष की प्राचीन लिपियों पर विद्वानों की दृष्टि पड़ी. भारतवर्ष जैसे विशाल देश में लेम्वनशैली के प्रवाह जे लेखकों की भिन्न रुचि के अनुसार भिन्न भिन्न मार्ग ग्रहण किये थे जिससे प्राचीन ग्रामी लिपि से गुप्त, कुटिल, नागरी, शारदा, बंगला, पश्चिमी, मध्यप्रदेशी, तेलुगु-कनड़ी, ग्रंथ, कलिंग नामिळ प्रादि अनेक लिपियां निकली और समय समय पर उनके कई रूपांतर होते गये जिससे सार देश की प्राचीन लिपियों का पढ़ना कठिन हो गया था; परंतु चार्ल्स विक्लिन्स, पंडित राधाकांत शर्मा, कर्नल जेम्म टॉड के गुरु यति ज्ञान- चंद्र, डॉक्टर थी जी. पविंगटन् , वॉल्टर इलिश्रद, डा. मिल, डयल्यू ऍच वॉथन्, जेम्स प्रिन्सेप आदि विद्वानों ने ब्राह्मी और उससे निकली हुई उपर्युक्त लिपियों को बड़े परिश्रम से पढ़ कर उनकी वर्ण- कुछ प्रकाशित की
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