भूमिका. मालाओं का ज्ञान प्राप्त किया. इसी तरह जेम्स प्रिन्सेप, मि. नॉरिस तथा जनरल कनिंगहाम पादि विद्वानों के श्रम से विदेशी खरोष्ठी लिपि की वर्णमाला भी मालूम हो गई. इन सब विद्वानों का यत्न प्रशंसनीय है परंतु जेम्स प्रिन्सेप का भगाध श्रम, जिससे अशोक के समय की ब्राह्मी लिपि का तथा खरोष्ठी लिपि के कई अदरों का ज्ञान प्राप्त हुआ, विशेष प्रशंसा के योग्य है. (प्राचीन लिपियों के पड़े जाने के वृत्तान्त के लिये देखो, इस पुस्तक के पृष्ठ ३७४१). प्रारंभ में इस देश में प्राचीन शोध के संबंध में जो कुछ कार्य हुमा वह भिन्न भिन्न विद्वानों और समाजों के द्वारा ही होता रहा. ई.स. १८४४ में रॉयल एशिमाटिक सोसाइटी ने सर्कारी तौर से कार्य का किया जाना आवश्यक समझ कर ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में निवेदन किया और ई. स. १८४७ में लॉर्ड हार्डिज के प्रस्ताव पर 'योर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स' ने इस काम के लिये ग्वर्च की मंजूरी दी परंतु ई.स. १८६० तक उसका वास्तविक फल कुछ भी न हुआ. ई.म. १८६१ में संयुक्त प्रदेश के चीफ इंजीनियर कर्नल ए. कनिंगहाम ने इस विषय की योजना तय्यार कर भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड कॅनिंग की सेवा में पेश की जो स्वीकृत हुई और सर्कार की ओर से 'आर्कि- बॉलॉजिकल सर्वे' नामक महकमा कायम हुआ तथा जनरल कनिंगहाम उसके अध्यक्ष नियत हुए. सर्कार के इस बड़े उपयोगी कार्य को हाथ में लेने से प्राचीन शोध के काम में बहुन कुछ उन्नति हुई. जनरल कनिंगहाम ने उत्तरी और डॉ. जेम्म यजस ने पश्चिमी व दक्षिणी भारत में प्राचीन शोष का कार्य किया. इन दोनों विद्वानों ने कई उत्तम रिपोर्ट छाप कर बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त की. ई. स. १८७२ से डॉ. बर्जेस ने 'इंडिअन् एटिकेरी' नामक भारतीय प्राचीन शोध का मामिक पत्र निकालना प्रारंभ किया जो अब तक चल रहा है और जिममें प्राचीन शोध संबंधी लेग्चों के अतिरिक्त अनेक शिलालेख, नाम्रपत्र और सिके छप चुके हैं. ई. म. १८७७ में गवमैट की तरफ से जनरल कनिंगहाम ने उस समय तक मौर्य वंशी राजा अशोक के जितने शिलालेग्व मालम हुए थे उनका एक पुस्तक और ई. स. १८८८ में जे. एफ फ्लीट ने गुप्ता और उनके ममकालीन राजा- ओं के शिलालेखों नथा दानपत्रों का अनुपम ग्रंथ प्रकट किया. उमी वर्ष में पार्किमॉलॉजिकल मर्वे के महकमे मे 'पिग्राफिया इंडिका' नामक त्रैमासिक पुस्तक का पना प्रारंभ हुआ, जिसमें केवल शिला- लेख और दानपत्र ही प्रकट होते हैं. इम ममय इसकी १४ वी जिल्द छप रही है. प्राचीन इतिहास के लिये थे जिल्दं रत्नाकर के ममान हैं. एमे ही उसी महकमे की ओर से ई म १८६० मे 'माउथ इंडिअन् इन्स्क्रिप्शन्म' नामक पुस्तक का छपना भी प्रारंभ हुआ, जिसमें दक्षिण के मंस्कृत, तामिळ प्रादि भाषाओं के शिलालेख और दानपत्र अपने हैं और जिमकी - हिस्सों में जिन्हें अब तक छप चुकी हैं. ये भी बड़े महत्व की है प्राचीन विषयों के प्रेमी लॉर्ड कर्जन ने आर्किऑलॉकिन विभाग को विशेष उन्नति दी और डाइरेक्टर जनरल ऑफ आर्किऑलॉजी की अध्यक्षता में भारत के प्रत्येक विभाग के लिये अलग अलग सुपरिटेंडेंट नियन किये. तब मे प्राचीन शोध के इम विभाग का कार्य विशेष उत्तमता मे चल रहा है और डाइरेक्टर जनरल एवं भिन्न भिन्न विभागों के मुपरिटेंडेंटों की सालाना रिपोर्टी में बहुतसे उपयोगी विषय भरे रहते हैं. प्राचीन शोध के कार्य के संबंध में भिन्न भिन्न ममा जो तथा मर्कार ने प्राचीन शिलालेख, दानपत्र, मिक्के, मुद्राऐं, प्राचीन मूर्तियां तथा शिल्प के उत्सम उत्तम नमूने आदि प्राचीन वस्तुओं का मंग्रह करना भी शुरू किया और ऐमी वस्तुओं के बड़े बड़े मंग्रह बंबई (एशिमाटिक मोमाइटी में), कलकत्ता ( इंडिअन् म्यूजियम् और एशिमाटिक सोमाइटी बंगाल में ), मद्रास, नागपुर, अजमेर, खाहौर, पेशावर, मथुरा, लम्बनऊ आदि के म्यूजियमों (अजायबघरों) में संग्रहीत हो चुके हैं और
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