पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१३१

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अंक पांचवा दक' और छठा 'म' के समान है. नेगल के लेखों में 'क', और भिन्न भिन्न लेख व दानपत्रों की पंक्ति में 'क' मिलना है ( देखो, लिपिपत्र ७१ और ७२ के पूर्वाद तीन पंक्तियां ). ४ का मूल चिक 'क' सा था जिस पर सिर की गोलाईदार या कोषदार रेखा लगाने से उसकी माकृति कुछ कुछ 'क' से मिलती हुई बनी. लेखकों की भिन्न भिन्न लेखन- शैली, सुंदरता लाने के यत्न और चलती कलम से पूरा अंक लिखने से उपयुक्त मिन भिन्न रूप बने आगे के अंकों का इस प्रकार का विवेचन करने में लेख बहुत बढ़ जाने की संभावना होने कारण बहुधा भिन्न भिन्न अवरों के नाम मात्र लिखे जायेंगे जिनको पाठक लिपिपत्र ७१ से ७५ के पूर्वार्द्ध के प्रथम खंड तक में दिये हुए अंकों से मिला कर देख लेवें. ५-इस अंक के चिक त, ता, पु, हु, रु, तु, ता, ना, न, ह, टू और ह अक्षरों से मिलते हुए पाये जाते हैं. ६ के लिये 'ज', स (१), फ, फा, फा, फ और हा से मिलते जुलते चिक मिलते हैं, तो भी जग्गयपेट, गुप्तों और पल्लव आदि के लेखों से दिये हुए इस अंक के चिक ठीक तरह किसी अक्षर से नहीं मिलने, वे अंकमंकेत ही हैं. उनको अक्षरों से मिलाने का यत्न करना बैंचतान के चिह्न ग्र, गु और ग मे मिलते जुलते हैं. -के चिह्न , हा, ह, हा, उ, पु, ट, टा, र, व और द्रा से मिलते हुए हैं, परंतु कुछ चिह्न ऐसे हैं जो अक्षर नहीं माने जा सकते. ह-नानाघाट के, कुशनवंशियों के और क्षत्रपों तथा आंध्रवंशियों के लेग्वों में जो ह के चिह्न मिलते हैं उनकी किसी प्रकार अदरों में गणना नहीं हो सकती. पीछे से अंतर पड़ने पर उसके चिह्न भो, उ और ओं (के कल्पित चिह्न ) से यनते गये. १०-नानाघाट के, कुशनवंशियों के, क्षत्रपों तथा आंधों के लेग्चों; क्षत्रपों के सिक्कों, जग्गयपेट के लेखों नथा गुप्तादिकों के लेखादि में तो १० का अंकमंकेत ही है क्यों कि उमकी किमी अक्षर से समानता नहीं हो मकनी परंतु पीछे से उमकी आकृति य, ह, हु, ग्व और लू से मिलती हुई बन गई. २० का चिह्न 'थ' था जो पीछे परिवर्तनों में भी उसी अदर के परिवर्तित रूपों के सहश बना रहा. ३० का चिन्ह 'लके मदृश ही मिलता है. ४० का चिह्न 'त' और 'स' से मिलता हुआ मिलता है. ५०-का चिह्न किसी अक्षर से नहीं मिलता. केवल भिन्न भिन्न लेग्वादि से उद्धृत किये हुए इस अंक के चिह्नों में से दूसरा दक्षिणी शैली के 'ब' से मिलता है. ६०-का चिह्नन 'प', 'पु' या 'प्र' से मिलता हुमा है. ७०.---का चिह्न 'स', 'म', रो, 'मा', 'प्र' या 'इ' से मिलता है. ८०-का चिहन उपध्मानीय के चिह्न से मिलना हुआ है (देखो,लिपिपत्र १७ में उदयगिरि के लेख के अक्षरों में उपध्मानीय का चिह्न). ६०-का चिह्न किसी अतर से नहीं मिलता. यदि उपध्मानीय के चिह्न के मध्य में एक माड़ी लकीर और बढ़ा दी जावे तो उसकी आकृति चत्रपों के सिक्कों से उद्धृत किये हुए इस चिह्न के दूसरे रूप से मिल जायगी.