पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१३२

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प्राचीनलिपिमाला 3 १००-नानाघाट के लेख में इस अंक का चिह्न 'सु' अथवा 'अ' से मिलता हुचा है क्यों कि उक्त दोनों अक्षरों की प्राकृति उस समय परस्पर बहुत मिलती हुई थी. पिछले लेखों में सु, भ, हु, से, सो और स्रों से मिलते हुए रूप मिलते हैं, परंतु नासिक के लेखों और क्षत्रपों के सिकों में इसके जो रूप मिलते हैं उनकी उस समय के किसी अक्षर से समानता नहीं है २००-अशोक के लेखों में मिलनेवाले इस अंक के तीन चिहनों में से पहिला 'सु' है, परंतु दूसरे दो रूप उस समय के किसी अक्षर से नहीं मिलते. नानाघाट के लेख का रूप 'या' के समान है. गुप्तों आदि के लेखों का दूसरा रूप 'ला' से मिलता हुआ है और भिन्न भिन्न लेखादि से उद्धृत किये हुए इस अंक के दो रूपों में से दूसरा 'स' से मिलता है. नासिक के लेखों, क्षत्रपों के सिकों, वलभी के राजाभों तथा कलिंग के गंगावंशियों के दानपत्रों में मिलनेवाले इस अंक के रूप किसी अक्षर से नहीं मिलते. ३००-का अंक १०० के अंक की दाहिनी ओर २ माड़ी या गोलाईदार लकीरें लगाने से बनता है १०० के सूचक अक्षर के साथ ऐसी दो लकीरें कहीं नहीं लगती, इसलिये इसकी किसी मात्रासहित अक्षर के साथ समानता नहीं हो सकती. ४०० से १०० तक के चिन, १०० के चिकन के आगे ४ से ६ तक के अंकों के जोड़ने से बनते थे. उनकी अक्षरों से समानता नहीं है. १०००-का चिहन नानाघाट के लेख में 'री' के समान है नासिक के लेखों में 'धु' अथवा 'चुसे मिलता हुआ है और वाकाटकवंशियों के दानपत्रों में उनकी लिपि के 'वु' के समान है. २००० और ३००० के चिहन, १००० के चिहन की दाहिनी ओर ऊपर को क्रमशः एक और दोभाड़ी लकीरें जोड़ने से बनते थे. इसलिये उनकी किसी अक्षर से समानता नहीं हो सकती. ४००० से १००० तक के अंक, १००० के चिहन के आगे क्रमशः ४ से 8 तक के, और १०००० से ६०००० तक के अंक, १००० के भागे १० से १० तक की दहाईयों के चिहन जोड़ने से पनते थे इसलिये उनकी अक्षरों से समानता नहीं है. ऊपर प्राचीन शैली के अंकों की जिन जिन अक्षरों से समानता बतलाई गई है उसमें मब के सप अक्षर उक्त अंकों से ठीक मिलते हुए ही हों ऐसा नहीं है कोई कोई अक्षर ठीक मिलने हैं बाकी की समानता ठीक वैसी है जैसी कि नागरी के वर्तमान अक्षरों के सिर हटाने के बाद उनका नागरी के वर्तमान अंकों से मिलान करके यह कहा जाय कि २ का अंक र से, 3 'रू से, ५ 'पू. से. ६ 'ई' से, ७ 'उ' की मात्रा से और ८ 'ट' से मिलता जुलता है. १, २, ३, ५०, ८० और १० के प्राचीन उपलब्ध रूपों और अशोक के लेग्वों में मिलनेवाले २०० के दूसरे व तीसरे रूपों ( देखो. हिपिपत्र ७४ ) से यही पाया जाता है कि ये चिन्न तो सर्वथा बक्षर नहीं थे किंतु अंक ही थे. ऐसी दशा में यही मानना पड़ेगा कि प्रारंभ में १ से १००० तक के सब अंक वास्तव में अंकही थे. यदि अक्षरों को ही भिन्न भिन्न अंकों का सूचक माना होता तो उनका कोई प्रम अवश्य होता और मय के सब अंक अक्षरों से ही यतलाये जाते, परंतु ऐसा न होना यही बतलाता है कि प्रारंभ में ये सब अंक ही थे अनायास से किसी अंक का रूप किसी अक्षर से मिल जाय यह बात दूसरी है; जैसे कि वर्तमान नागरी का २ का अंक ससी लिपि के 'र' से, और गुजराती के २ (२) और ५ (५) के अंक उक्त लिपि के र (२) और 1. एक, दो और तीन के प्राचीन चिश्तो स्पष्ट ही संख्यासूचक हैं और अशोक की लिपि में चार का चिक जो 'क' अक्षर से मिलता पुत्रा है यह संभव है कि चौराहे या स्वस्तिक का सूचक हो. ऐसे ही और अंकों के लिए भी कोई कारण रहा होगा