पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१३३

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Powe अंक. प(५) से बिलकुल मिलते हुए हैं. कभी कभी अक्षरों की नाई अंकों के भी सिर पनाने से उनकी भाकृतियां कहीं कहीं अक्षरों सी बनती गई. पीछे से अंकचिहों को अक्षरों के से रूप देने की चाल बढ़ने लगी और कितने एक लेखकों ने और विशेषकर पुस्तकलेखकों ने उनको सिरसहित अक्षर ही बना डाला जैसा कि बुद्धगया से मिले हुए महानामन् के शिलालेख, नेपाल के कितने एक लेखों तथा प्रतिहारवंशियों के दानपत्रों से पाया जाता है. तो भी १, २, ३, ५०, ८० और १० तो अपने परिवर्तित रूपों में भी प्राचीन रूपों से ही मिलते जुलते रहे और किनंदी भचरों में परिणत न हुए. शिलालेखों और ताम्रपत्रों के लेग्वक जो लिखते थे वह अपनी जानकारी से लिखते थे, परंतु पुस्तकों की नकल करनेवालों को तो पुरानी पुस्तकों से ज्यों का त्यों नकल करना पड़ता था. ऐसी दशा में जहां वे मूल प्रति के पुराने अक्षरों या अंकों को ठीक ठीक नहीं समझ सके वहां वे अवश्य चूक कर गये. इमीसे हस्तलिखित प्राचीन पुस्तकों में जो अंकसूचक अक्षर मिलते हैं उनकी संख्या अधिक है जिनमें और कई अशुद्ध रूप दर्ज हो गये हैं लिपिपत्र ७२ ( पूर्वार्द्ध की अंतिम तीन पंक्तियों) और ७४ ( उत्तरार्द्ध की अंतिम दो पंक्तियों) में हस्तलिखित प्राचीन पुस्तकों से अंकमचक अक्षरादि दिये गये हैं वे बहुत कम पुस्तकों से हैं. भिन्न भिन्न हस्तलिम्वित पुस्तकों में वे नीचे लिम्वे अनुसार मिलते हैं- १-ए, स्व और ॐ २-बि, स्ति और न 3-त्रि, श्री और मः ४-का', ई, का, एक, एक, एक, कं, कि (के), ,, और पु ५-४, प्रे, ता. . हु और न ६-फ, म, , , भ्र, पु, व्या और फ्ल. ७-ग्र, ग्रा, ग्रा, ग्भ्री गर्गा और भ्र. --है, ई, र्हा और द्र ह-ओं, ई, ई, उं. ॐ. अ और . एट, डा, अ और " २०-थ, था, थे, ी, घ, घ, प्व और व ३०-ल, ला, ले और ा ४०-स. सं. सा, सी और म ५०-3, 6.6,2,9 और खू । क्ली, गु. पेट ३६A २. फ्री गुलेट ४१३ .जि, पृ १६३-८० ४. रजि ५. पृ २०६ रो. जि १५, पृ ११२ और १४० के पास के प्लेट. और राजपूताना म्युज़िअम् में रक्ला हुमा प्रतिहार राजा महेंद्रपाल (दूसरे) के समय का वि में १००३ का लेख यह लेख मैंने 'ऍपिमाफिया इंडिका' में छपने के लिये भेज दिया है 'सूर्यप्राप्ति' नामक जैन ग्रंथ का टीकाकार मलयगिरि, जो ई स. की १२वीं शताब्दी के भासपास हुमा, मूब पुस्तक के 'क' शब्द को ४ का सूचक बतलाता है ( इमन्दोपादानात प्रासादीचा रस्यनेम पदेन परब ना -.; जि.६. पृ ४७) • यह चतुरन चिश उपध्मानीय का है । देखो, लिपिपत्र ४९) 'क' के पूर्व इसका प्रयोग करना यही बतलाता कि उस समय इस चिश का ठीक ठीकझाम नहीं रहा था . 'क'के ऊपर का यह चिहन जिह्वामूलीय का है (देखो, लिपिपत्र १६).