पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१४६

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प्राचीनलिपिमाला. प्रसिद्ध हुआ ई. स की नवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में प्रसिद्ध अबुजफर मुहम्मद अल खारिज्मी ने भरवी में उक्त क्रम का विवेचन किया और उसी समय से उसका प्रचारअरषों में बढ़ता रहा 'यूरोप में शून्यसहित यह पूरा [अंक]क्रम ई. स. की १२ वीं शताब्दी में भरषों से लिया गया और इस क्रम से बना हुआ अंकगणित 'मन्गोरिदमम्' (भल्गोरिथम् ) नाम से यह (अल्गोरिदमम् ) विदेशी शब्द 'अल्खारिज़मी' का अक्षरांतर मात्र है जैसा कि रेनॉड ने अनुमान किया था, और उक्त भरव गणितशास्त्रवेत्ता के अनुपलब्ध अंकगणित के पुस्तक के कैंब्रिज से मिले हुए अद्वितीय हस्तलिग्विन लॅटिन अनुवाद के, जो संभवतः वाय- निवासी ऐडेलहर्ड का किया हुआ है, प्रसिद्ध होने के बाद वह ( अनुमान ) प्रमाणित हो गया है ग्वारिज़्मी के अंकगणित के प्रकारों को पिछले पूर्वीय विद्वानों ने सरल किया और उन अधिक मरल किये हुए प्रकारों का पश्चिमी यूरोप में पीमा के लेयोनार्डो ने और पूर्वी में मॅक्सिमम् प्लॅनुडेस ने प्रचार किया 'जिरो' शब्द की उत्पत्ति अरबी के 'सिफर' शब्द से, लिओनार्डो के प्रयुक्त किये हुए 'ज़िफिरो' शब्दद्वारा, प्रतीत होती है: भारतीय अंकों से अरयों के और उनमे यूरोप के अंकों की सर्वमान्य उत्पत्ति के विरुद्ध मि के ने उपयुक्त लेग्य के प्रारंभ में ही लिग्वा है कि 'यह कहा जाता है कि हमारे अंकगणित के अंकों की उम्पत्ति भारनीय है. पीकॉक, चॅसल्स, वोप्के, कँटार, बेले, बूलर, मॅकडोनेल और दमरे लेखक प्रायः निश्चय के साथ यही कहते हैं और विश्वकोशों तथा कोशों का यही कथन है. तो भी इम ममय जो सामग्री उपलब्ध है उसकी सावधानी के साथ परीक्षा करने से यह पाया जाता है कि उन(अंकी)की भारतीय उत्पत्ति की कल्पना उचित प्रमाण मे रहित है. वैसी परीक्षा यही बतलाती है कि उन. कथनों में से बहुत से निस्सार हैं (यंगा.ए.सोज; ई. स. १६०५. पृ. ४७५ ) अरची में अंकों को 'हिंदमे कहते हैं जिसका अबतक के विद्वान् हिंद ( हिंदुस्तान ) मे लिये जाने के कारण ऐमा कहलाना मानते हैं, परंतु मि. के का कथन है कि 'शब्दव्युत्पत्तिशास्त्र का बड़ा ज्ञाना फ़ीराज अयदि (ई. म. १३२९-१४२४ ) 'हिंदसह शब्द की उत्पत्ति 'अंदाजह' से होना बतलाता है, जिमका अर्ध परिमाण है हरेक मादमी विचार सकता है कि यह काफी अच्छा प्रमाण है परंतु भारतवर्ष के विषय में लिखनेवालों में से अधिकतर ने इसे स्वीकार नहीं किया (पृ. ४८६). इसी तरह इन्न सिना के वर्गसंख्या- विषयक नियम में लिखे हुए 'फी अल्तरीक अलिंहदसे और उसीके घनसंख्याविषयक नियम में दिये हुए 'मल्हिसाव अल्हिदमे' में 'हिंदसे शब्दों का हिंद ( हिंदुस्तान ) से कोई संबंध न बतलाने का यत्न किया है (पृ ४६० ) मि. के का यह कथन भी स्वीकार करने योग्य नहीं है और वैसा ही है जैसा कि उपर्युक्त यह कथन कि 'हिंदुओं के गणितशास्त्र भर में ई.स. की दसवीं शताब्दी के पूर्व नवीन शैली के ( वर्तमान ) अंकों के व्यवहार की कल्पना का तनिक भी चिक नहीं मिलता' (देश्वो, ऊपर पृ. ११६, टिप्पण ६). ऐसे कथनों का प्रतिवाद कर लेव को बढ़ाने की हम आवश्यकता नहीं समझने. प्रसिद्ध विद्वान् अल्बेरुनी ने, अपनी भारतवर्ष संबंधी तहकीकान की अरबी पुस्तक में, जो ई. म. १०३० के आम पास लिखी गई थी, लिया १ अरबो के द्वाग भारतीय अंकों का यूरोप में प्रवेश हुआ उससे बहुत पहिले अर्थात् ई म. की ४ थी शताब्दी के पास पास निभा-पियागाग्थिन्' नामक अध्यात्म विद्या के उपदेशक, संभवतः प्रलंदिया (मिसर में) की तरफ भारतीय अंकों का मान प्राप्त कर, उनको यूरोप में ले गये परंतु उनका प्रचार अधिक न पढ़ा और वे सार्वदेशिक न हुए, यूरोप में भारतीय अंकों का वास्तविक प्रचार स्पेन पर अरबों का अधिकार होने के बाद भरयों के द्वारा ही हुमा इसीसे यूरोप के वर्तमान अंको को 'रेबिक (अरबों के) अंक' कहते है २. एनिजि १७.पृ.६२६