पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१५१

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अंक १२३ १ २ ३ ४ ५ ६ 31 8 ग् ज् म 15 द lo द A ण थ द् घ a फ ब भ म् य र व थ म ह [] इस क्रम में केवल व्यंजनों से ही अंक सूचित होते स्वर निरर्थक या शून्यसूचक समझे जाते हैं और संयुक्त व्यंजन के घटक व्यंजनों में से प्रत्येक से एक एक अंक प्रकट होता है . संस्कृत लेम्बकों की शब्दों से अंक प्रकट करने की सामान्य परिपाटी यह है कि पहिले शब्द से इकाई, दूसरे से दहाई, तीसरे से सैंकड़ा भादि अंक सूचित किये जाते हैं ( अंकानां वामतो गतिः), परंतु आर्यभट ने अपने इस क्रम में उक्त परिपाटी के विरुद्ध अंक बतलाये हैं अर्थात् अंतिम अक्षर से इकाई, उपांत्य से दहाई इत्यादि. इस क्रम में १ का अंक क, ट, प, या य अक्षर से प्रकट होता है जिससे इसको 'कटपयादि' क्रम कहते हैं कभी कभी शिलालेखों", दानपत्रों', तथा पुस्तकों के संवत् लिखने में अंक 'कटपयादि क्रम से दिये हुए मिलते हैं परंतु उनकी और आर्यभट (दूसरे) की उपर्युक्त शैली में इतना अंतर है कि उनमें 'अंकानां वामतो गतिः' के अनुसार पहिले अक्षर से इकाई, दूसरे से दहाई आदि के अंक बतलाये जाते हैं और संयुक्त व्यंजनों में केवल अंतिम व्यंजन अंक सूचक होता है न कि प्रत्येक व्यंजन. , . । प्रायसिद्धांत में ळ' नहीं है, परंतु दक्षिण में इस शली के अंका में उसका प्रयोग होता। जि४, पृ २०७) है इस लिये यहां दिया गया है २ सतीश कर धमन शिक्षा naveen मदर्याममध" ५२० यमास्यम्य । श्रा सि 1 ) बनकर भरर्थ। ०२८ भिजंगण (श्रा सि.११४०). स्फटभुकोमा ११ क मा . धन सेन। २० अरभिमे २४५७)ईने विष (भा सि:५५). राघवाया १५४१ । गणिने गक वर्ष.. राघवाप र म । मकादं (जि. ६, पृ १२१) बीमाकोसपबरें भनि( ) गर्माणधिरादित्य वर्मा बधीपालो ( ई.एँ, जि २. पृ ३६० ). राकासोक (१९१२) मकान सम्पत्तिमपि पिहयात (..जि २. पृ ३६१). मावासोक ( १३१५ ) एकादं परिमहमति वीसुवामा मास (प.. जि. ३. पृ २२१). नरबहोके (१७) भबबाद बोधिभत्सरे रामे ('. जि. ३, पृ ३८). गोरखाम्ममाप.१६५२)नि कन्यय ति। मनकायोतिर्माता दार्थदीपिका । समाधि पर पाहिमा पब । सहामिन ति दिनवासार्थ रेरित (.. जि २१, पृ.५०). इन दो श्लाको में पद्गुरुशिष्य ने अपनी वेदार्थ- दीपिका' नामक 'सर्वानुकमणी' की टीका की रचना कलियुग के १५६५१३२ दिन व्यतीत होने पर करना पतलाया है. इस गणना के अनुसार उक्त टीका की रचना कलियुग संवत् ४२८४-शक सं. ११०६ - वि सं. १२४१ (तारीख २४ मार्च, ई. स. १९८४ ) में होना पाया जाता है .. इसी पत्र के टिप्पण ८ में 'शक्यालोके' के 'त्या' में के लिये १ का अंक लिया गया है और तथा को छोड़ दिया है ऐसे ही उसी टिप्पण में 'तत्वलोके'के 'स्व' के के लिये ४ का अंक लिया है, कलिये रुपमहीं. ऐसे ही टिप्पणमें 'या' और 'मे' में और 'म्' के लिये क्रमशः १और के अंक खिये हैं बाकी प्रहरीको छोड़ दिया है.