पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१६०

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प्राचीनलिपिमाला इसके प्रचार का कोई पता नहीं चलता. शिवाजी ने जब अपना नया राज्य स्थापित किया तब नागरी को अपनी राजकीय लिपि बनाया परंतु उसके प्रत्येक अक्षर के ऊपर सिर की लकीर बनाने के कारण कुछ कम त्वरा से वह लिखी जाती थी इस लिये उसको त्वरा से लिखी जाने के योग्य बनाने के विचार से शिवाजी के चिटनीस' (मंत्री, सरिश्तेदार ) बालाजी अवाजी ने इसके अक्षरों को मोड़ (तोड़ मरोड़) कर नई लिपि तय्यार की जिससे इसको 'मोड़ी' कहते हैं. पेशवाओं के समय में बिवलकर नामक पुरुष ने उसमें कुछ और फेर फार कर अक्षरों को अधिक गोलाई दी यह लिपि सिर के स्थान में लंबी लकीर खींच कर लिखी जाती है और बहुधा एक अथवा अधिक शब्द या सारी पंक्ति चलती कलम से लिखी जाती है. इसमें 'इ', तथा और 'उ' की मात्राओं में इस्व दीर्घ का भेद नहीं है और न हलंत व्यंजन हैं. इसके अक्षरों में से ' और 'ज' गुज- राती के उक्त अक्षरों के समान हैं. 'व', 'प'. 'ब' और 'र' प्राचीन तेलुगु-कनड़ी के उक्त अक्षरों से लिये हों ऐसा पाया जाता है 'ट' और 'ठ' के रूप एकसा हैं। उनके बीच का भेद बतलाने के लिये के बीच में एक बिंदी लगाई जाती है. अ, उ, क, प्र, य, ल, व, म और ह के रूपों में नागरी से अधिक अंतर पड़ा है. बाकी के अक्षर नागरी से मिलते जुलते ही हैं बंबई इहाते की मराठी की प्रारंभिक पाठशालाओं में इसकी छपी हुई लिथो की पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं. इसका प्रचार महाराष्ट्र देश की कचहरियों में है और मराठी बोलनेवाले यहुधा पत्रव्यवहार या हिसाय में इसे काम में लाने हैं बंबई इहाते के बाहर के मरहटों के राज्यों में भी इसका कुछ कुछ प्रचार है राजपुताने में इस लिपि में खुदे हुए दो शिलालेख भी दंग्वने में आये जो मरहटी के समय के सिपिपत्र ८० वा इस लिपिपत्र में तेलुगु. कनड़ी और ग्रंथ लिपियां दी गई हैं संलुगु और कनड़ी लिपियां ये दोनों लिपिपत्र ४३ मे ५१ में दी हुई प्राचीन मेलुगु-कनडी लिपि से निकली हैं इनके अधिकतर अक्षर परस्पर मिलते जुलते ही हैं. केवल उ, ऊ, ऋ, क, न, स और ह में अंतर है इन दोनों लिपियों में ए और 'ओ के ह्रस्व तथा दीर्घ, दो दो भेद है. नागरी लिपि में यह भेद न होने में हमने दीर्घ 'ए और दीर्घ 'ओ' के लिये नागरी के 'ए' और 'ना' के ऊपर बाड़ी लकीर लगा कर उनका भेद बतलाया है. तेलुगु लिपि का प्रचार मद्राम इहाने के पूर्वी समुद्रतट के हिस्मे, हैदरायाद राज्य के पूर्वी तथा दक्षिणी हिस्मों एवं मध्यप्रदेश के मय से दक्षिणी हिस्से में है. कनही लिपि का प्रचार बहुधा सार माहमार राज्य, कुर्ग, नीलगिरि प्रदेश, माइ- सोर के निकट के पश्चिमी घाट प्रदेश और पंधई इहाते के दक्षिणी कोने (बीजापुर, बेलगांव तथा पारवाड़ जिलों और उत्तरी कनड़ा प्रदेश ) में है. तेलुगु नाम की उत्पत्ति संभवतः त्रिलिंग' ( तिलिंग, तिलिंगाना ) देश के नाम पर मे हो; और कनड़ी की कन्नड (प्राचीन 'कर्णाट ) देश के नाम से है. ग्रंथ लिपि-दक्षिण के जिन हिस्मों में तामिळ लिपि, जिसमें अक्षरों की न्यूनता के कारण संस्कृत भाषा लिखी नहीं जा सकती, प्रचलित है वहां पर संस्कृत ग्रंथ इस लिपि में लिखे जाते हैं. इसीसे इसको ग्रंथ लिपि ( संस्कृत ग्रंथों की लिपि ) कहते हैं. यह लिपि लिपिपत्र ५२ से . चिटनीम ( चिटनवीम = चिट्टी नवीस, जैसे कि फरनीस (फरनवीस )-फर्द नवीस. पै.जि.३४.पू. २७-८