लेखनसामग्री. हुए किसी किसी दानपत्र के अक्षर इतने पतले हैं कि वे पहिले स्याही से लिखे गये हों ऐसा प्रतीत नहीं होता. संभव है कि तांबे के पत्रों पर पहिले मुलतानी मिट्टी या ऐसा ही कोई और पदार्थ पोतने के बाद दक्षिणी शैली के ताइपत्रों की नाई उनपर तीखे गोल मुंह की लोहे की कलम से लेखक ने अक्षर बनाये हों जिनको खोदनेवाले कारीगर ने किसी तीक्ष्ण औजार से खोदा हो. उत्तरी हिंदुस्तान से मिलनेवाले दानपत बहुधा एक या दो पत्रों पर ही खुदे मिलते हैं परंतु दक्षिण से मिलनेवाले अधिक पत्रों पर भी खुदे हुए मिलते हैं, जैसे कि विजयनगर के वेंकटपतिदेव महाराय का मदुरा से मिला हुमा शक सं. १५०८ (ई.स. १५८६) का दानपत्र र पत्रों पर और हॉलँड देश की लेडन यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) के म्यूजियम में रक्खा हुमा राजेंद्रचोल के २३ वें राज्यवर्ष का दान- पत्र २१ पत्रों पर खुदा हुभा है. दो से अधिक और ६ से कम पत्रों पर खुदे हुए तो कई एक मिल चुके हैं. कभी कभी ऐसे ताम्रपत्रों की एक तरफ के बाई ओर के हाशिये पर या ऊपर पत्रांक भी खदे मिलते हैं. जो दानपत्र दो या अधिक पत्रों पर खुदे रहते हैं उनका पहिला और अंत का पत्रा बहुधा एक ही भोर अर्थात् भीतर की तरफ से खुदा रहता है. ऐसे दानपत्रों के प्रत्येक पत्रे में यदि पंक्तियां कम लंबाई की हों तो एक, और अधिक लंबाई की हो तो दो, छेद होते हैं जिनमें तांबे की कड़ियां डाली जाती हैं जिनसे सब पते एकत्र रहते हैं. कभी कभी ताम्रपत्रों को एकत्र रखनेवाली कड़ी की संधि पर तांबे का लोंदा लगा कर उसपर राजमुद्रा लगाई जाती थी, जिसके साथ के लेख के अक्षर उभड़े हुए मिलते हैं. कभी कभी एक ही पते पर खुदे हुए दानपत्र की बाई भोर राजमुद्रा, जो अलग डाली जा कर बनाई जाती थी, जुड़ी हुई मिलती है. कभी कभी राजमुद्रा पत्रे पर" ही खोदी जाती थी, जिसके साथ कोई लेख नहीं होता. कितने एक ताम्रपत्रों के अंत में राजाभों के हस्ताक्षर खुदे हुए रहते हैं जिनसे उनके लेखनकला के ज्ञान का भी पता लगता है. ताम्रपत्र छोटे बड़े भिन्न भिन्न लंबाई चौड़ाई के पतले या मोटे पत्रों पर खुदवाये जाते ये जो तांबे के पाट को कूट कूट कर बनाये जाने थे. कई ताम्रपत्रों पर हथोड़ों की चोटों के निशान पाये जाते हैं. अब जो ताम्रपत्र बनते हैं वे तांबे की चादरों को काट कर उनपर ही स्वुदवाये जाने हैं. ताम्रपत्र स्वोदने में यदि कोई प्रशृद्धि हो जाती तो उस स्थान को कूट कर बराबर कर देते और फिर उसपर शुद्ध अक्षर खोद देते. ताम्रपत्रों पर भी शिलालेखों की तरह कुछ कुछ हाशिया छोड़ा जाता और कभी कभी किनारे ऊंची उठाई जाती थीं. दानपत्रों के अतिरिक्त कभी कोई राजाज्ञा' अथवा स्तूप, मठ भादि बनाये जाने के लेख तथा ब्राह्मणों और जैनो के विविध यंत्र भी तांबे के त्रिकोण, १ जि. १२, पृ. १७१-८५ . डॉ० बजेस संपादित 'तामिल एंड संस्कृत इन्स्क्रिप्शम्स,' २०६-१६. १. राजमुद्रा में राज्यचिक, किसी जानवर या देवता का सूचक होता है. भिन्न भिन्न वंश के राज्यचि मित्र मिन मिलते हैं जैसे कि बलभी के राजाओं का नंदी. परमारों का गरुड, दक्षिण के चालुक्यों का वराह, सेनवंशियों का सदाशिव भादि. .. राजपूताना म्यूज़ियम् में रक्खे हुए प्रतिहार राजा भोजदेव के वि सं १००( स ८४३) के दानपत्र की बड़ी राजमुद्रा अलग बनाई आकर ताम्रपत्र की बाई ओर माल कर जोड़ी है. प्रतिहार महेन्द्रपाल ( प्रथम ) और विनायकपाल के दानपत्रों की मुद्राएं भी इसी तरह जुड़ी हुई होनी चाहिये (ई. जि. १५, पृ ११९ और १४० के पास के सेट. इन मेटो में मुद्रा की प्रतिकृति नहीं दी परंतु बाई ओर जहां वह जुड़ी थी वह स्थान खाली पाया जाता है) .. मालवे के परमारों के दानपत्रों में राजमुद्रा बहुधा दूसरे पत्रे के बाई ओर के नीचे के कोण पर लगी होती है. • राजपूताना म्यूज़िमम् ( अजमेर ) मैं रक्खे हुए दानपत्रों में से सबसे छोटा ४ च लंबा और ३इंच चौड़ा है और तोल में १२ तोले है सब से बड़ा प्रतिहार राजा भोजदेव का दौलतपुरे (जोधपुर राज्य में) से मिला हुमा मुद्रासहित २ फुट ५च संथा और १ फुट ४ इंच चौड़ा तथा तोल में १५ सेर (३६, पौंड) के करीब है. ये दोनों एक एक पत्रे पर ही खुदे हैं. .. सोहगौरा के ताम्रलेख में राजकीय भाषा है (ए. सो. बंगा के प्रोसीडिइस ई. स. १८६४, प्लेट १). म. तक्षशिला ताम्रज में क्षत्रप पतिक के बनाये चार स्तूप एवं मठ का उल्लेख है (.: जि.४, पृ.५५-१६). .. राजकोट के सुप्रसिब स्वर्गीय वैध पावा मेहता के घर की देवपूजा में बिके की एक छोटे बड़े यंत्र मेरे देखने
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