पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/२०१

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भारतीय संवत् कोई शक राजा वेननम् को और कोई शक राजा अय (अज=Azes) को इसका प्रवर्तक मानते हैं परंतु ये सब अनुमान ही हैं, निश्चित रूप से इसके प्रचारक का नाम अब तक ज्ञात नहीं हुआ. गत शक संवत् में ३१७६ जोड़ने से कलियुग संवत्, १३५ जोड़ने से गत चैत्रादि विक्रम संवत् और ७८ (अंत के करीब तीन महीनों में ७६ ) जोड़ने से ई. स. भाता है. यह संवत् बहुधा सारे दक्षिण में (तिन्नेवेक्लि और मलबार प्रदेशों को छोड़ कर) प्रचलित है. उत्तरी हिंदुस्तान में पंचांग, जन्मपत्र और वर्षफल आदि में विक्रम संवत् के साथ यह भी लिखा जाता है और वहां के शिला- लेखादि में भी कभी कभी इसके वर्ष लिखे मिलते हैं. इसका प्रारंभ चैत्र शुक्ला १ से होता है. इसके महीने उत्सरी हिंदुस्तान में पूर्णिमांत, और दक्षिण में अमांत माने जाते हैं. दक्षिण के जिन हिस्सों में सौर मान का प्रचार है वहां इसका प्रारंभ मेष संक्रांति से होता है. करण ग्रंथों के आधार पर पंचांग बनानेवाले सारे भारतवर्ष के ज्योतिषी इमी संवत् का आश्रय लेते हैं. पंचांगों में इमके वर्ष गत ही लिग्वे रहते हैं शिलालेख और दानपत्रों में भी विशेष कर गत वर्ष ही लिग्वे मिलने हैं वर्तमान वर्ष कम. -कलचुरि संवन कलचुरि' संवत को 'चदि मंवत्' और 'त्रैकटक मंवत्' भी कहने हैं यह मंवत् किस राजा ने चलाया इसका कुछ भी पता नहीं चलता. डॉ भगवानलाल इंद्रजी ने महान्त्रप ईश्वरदस को और डॉ प्लीट ने अभीर ईश्वरदत्त या उसके पिता शिवदन' को इमका प्रवर्तक बनलाया है. रमेश- चंद्र मजुमदार ने इमको कुशन( तुर्क )वंशी राजा कनिष्क का चलाया हुआ मान कर कनिष्क, वासिष्क, हुविष्क और वासुदेव के लेग्वों में मिलनेवाले वर्षों का कलचुरि संवत् का होना अनुमान किया है. परंतु ये मब अटकलें ही हैं और इनके लिये कोई निश्चित प्रमाण नहीं है यह संवत् दक्षिणी गुजरात, कोकण एवं मध्यप्रदेश के लग्वादि में मिलता है. ये लेग्व गुज- रात आदि के चालुक्य, गुर्जर, सेंद्रक, कलचुरि और त्रैक्टक वंशियों के एवं चेदि देश (मध्यप्रदेश के उनी हिस्स) पर राज्य करनेवाले कलचुरि (हैहय )वंशी राजाओं के हैं. इस संवत्वाले अधिकतर लेख कलचु- रियों (हैहयों) के मिलने हैं और उन्हीमें इसका नाम 'कलचुरि' या 'चदि' संवत् लिम्वा मिलता है जिससे यह भी संभव है कि यह संवत् उक्त वंश के किसी राजा ने चलाया हो. त्रिपुरी के कलघुरि राजा नरसिंहदेव के दो लम्वों में कलचुरि संवत् १०७० और १०६ और तीसरे में विक्रम संवत् १२१६ मिलने से स्पष्ट है कि कलचुरि संवत् १०६, विक्रम संवत् १२१६ के निकट होना चाहिये. इमस विक्रम संवत् और कलचुरि संयत् के बीच का अंतर (१२१६-६०६= ) ३०७ के लगभग पाता है डॉ. कीलहान ने कलचुरि संवत्वाले शिलालम्ब और दानपत्रों के महीने, तिथि और वार आदि को गणित से जांच कर ई स. २४६ तारीग्व २६ ऑगस्ट अर्थात् वि. सं. ३०६ १ कलचुरिमवासंर ८३ राजश्रीमत्पृथ्वीदवाराज्य] ( ई ए जि २०, पृ. २४) कलचुरिसवत्सरे ६१० राजश्रीमत्पृथ्वीदेव- विजयराज्ये (क, प्रा स रि, जि. १७, प्लेट २०) नवस(श)तयुगलान्दाधिक्यगे चेदिदिष्टे जान] पदमवतीम श्रीगयाकगणदेवे । प्रतिपदि शुचिमासश्वेतपक्षकबारे शिवशरणसमीपे स्थापितेयं प्रशस्तिः ॥ ( ई. मैं; जि १८.१ २११। चेदिसंवत् १३३ (ई. ऍ; जि २२, पृ ८२). . त्रेकूटकानां प्रवर्द्धमानराज्यसंवत्सरशतद्वये पञ्चचत्वारिंशदुत्तरे ( केवटेंपल्स ऑफ वेस्टर्न इंडिया. पृ ५८ और प्लेट) . ज. रॉ. ए. सो. ई.स १९०५, पृ. ५६६. डॉ भगवानलाल इंद्रजी ने नासिक के लेखवाले अभीर खिरसेन और महाक्षत्रप सिरदत्त को. जिसके केवल पहिले और दूसरे राज्यवर्ष के सिक्के मिलते हैं. एक ही माना या ज. रॉ ए. सोः स १६०५, पृ ५६८ .५, जि.४६,पृ. २६६-७०. एंजि २, पृ. १०-१३. ८. जि १८, पृ २१२-१३ ०.4 जि.१८, पृ.२१४.