पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/२०६

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१७८ प्राचीनलिपिमाला. १३-भाटिक (भट्टिक) संवत् भाटिक (मष्टिक) संवत् जैसलमेर के दो शिलालेखों में मिला है. भधि या भटिक (भाटी) नामक राजा जैसलमेर के राजाभों का प्रसिद्ध पूर्वज था जिसके नाम से उसके वंशज भाटी कहलाये. यह संवत् राजा भटिक (भाटी) का चलाया हुमा होना चाहिये जैसलमेर के लक्ष्मीनारायण के मंदिर के शिलालेख में, जो वहां के राजा वैरिसिंह के समय का है, वि. सं. १४६४ और भाटिक संवत् ८१३ लिखा है जिससे वि.सं. और भाटिक संवत् का अंतर (१४६४-८१३= ) ६८१ भाता है. वहीं के महादेव के मंदिर के लेख में, जो रावल भीमसिंह के समय का है, वि. सं. १६७३, शक संवत् १५३८ और भाटिक संवत् १९३ मार्गशीर्ष मास लिखा है. इस हिसाब से विसं. और भाटिक संवत् के बीच का अंतर (१६७३-६६३= ) ८० प्राता है. इन दोनों लेखों से पाया जाता है कि भाटिक संवत् में ६८०-८१ मिलाने से विक्रम संवत् और ६२३-२४ मिलाने से ई. स. याता है. अभी कत जैसलमेर राज्य के प्राचीन लेखों की खोज बिलकुल नहीं हुई जिससे यह पाया नहीं जाता कि कब से कब तक इस संवत् का प्रचार रहा.' १४- कोल्लम (कोलंब) संवत् . इस संवत् को संस्कृत लेखों में कोलंब संवत् (वर्ष) और तामिळ में 'कोल्लम् मांड' (कोल्लम्-पश्चिमी, और आंड-वर्ष) अर्थात् पश्चिमी [ भारत का ] संवत् लिग्वा है. यह संवत् किसने और किस घटना की यादगार में चलाया इस विषय में कुछ भी लिखा हुआ नहीं मिलता. इसके वर्षों को कभी 'कोल्लम् वर्ष' और कभी 'कोल्लम के उद्भव से वर्ष लिम्वते हैं, जिससे अनुमान होता है कि भारत के पश्चिमी तट पर के मलयार प्रदेश के कोल्लम (किलोन, द्रावनकोर राज्य 1. चारण रामनाथ रत्नू ने अपने इतिहास गजस्थान' में भाटीजी ( भट्टिक. भाटी ) का समय यि में ३३६-३५२ दिया है (पृ २३२ ) जो सर्वथा मानने योग्य नहीं है ऐसे ही भाटीजी और देवगज के बीच के राजाओं की नामावली एवं देवराज का समय वि सं. ६०४ स १०३० लिखा है । पृ २३८ ) वह भी ठीक नहीं है क्यों कि जोधपुर में मिले हुए प्रति- हार बाउक के वि सं ८६४ के लेख से पाया जाता है कि भट्टिक । भाटी ) देवराज को वाउक के पांचवें पूर्वपुरुष शीलुक ने पगस्त किया था ( की लि ई ना : ४७, लेखसंख्या ३३० ) बाउक वि. सं ८६४ में विद्यमान था यदि बाउक से शीलुक तक ( शीलुक, झोट, भिल्लादित्य. कक और याउक ) प्रत्येक गजा का राजत्वकाल भासत हिसाब से २० वर्ष माना जावे तो शीलुक का वि. सं ८४ के आस पास विद्यमान हाना स्थिर होता है और उसी समय महिक ( माटी ) देवगज भी विद्यमान होना चाहिये देवराज का ७ वा पूर्वपुरुष भट्टिक । भाटी ) था ( भाटी. मंगलगव, मजमराव, केहर, तना या तनुजी, विजयगज और देवगज-मंजर अर्सकिन् का जैसलमेर का गॅजेटियर, पृ. १-१०, और टेबल संख्या ५) यदि इन गजाओं का राज्यममय भी औसत हिसाब से २० वर्ष माना जावे तो मट्टिक ( भाटी) की गद्दीनशीनी का समय बि सं ६८० के करीब आ जाता है इस लिये भाटिक (भट्टिक) संवन् को राजा भट्टिक का चलाया हुआ मानने में कोई बाधा नहीं है, चाहे वह उक्त गजा के गज्याभिषेक से चला हो या उस गजा ने अपने समय की किसी अन्य घटना की यादगार चलाया हो. २ संवत् श्रीविक्रमार्कसमयातीतसंवत् १४६४ वर्षे भाटिके सवत् ८१३ प्रवतमान महामागल्य........चंद्रे (प्रो. श्रीधर पार. भंडारकर की संस्कृत पुस्तकों की तलाश की ई स १९०४-- और १९०५-६ की रिपोर्ट, पृ. १५). • स्वस्ति श्रीनृपविक्रमादिता(त्य)समयातातः(तीत)संवत् १६७३ रामाश्वभूपती वर्षे शाके १५३८ बमुरामशरके प्रवत्तमन(र्तमाने) भाटिक ३ मार(ग)शिर....(उपर्युक्त रिपोर्ट, पृ. ८).

  • श्रीमत्कोलंबवर्षे भवति गुणमणिश्रेणिरादित्यवर्मा वञ्चीपालो ( ; जि २ पृ. ३६०).