पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/३४

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प्राचीनलिपिमाला यह भी पाया जाता है कि उस समय चौपायों के कानों पर सुव, स्वस्तिक आदि के और पांच तथा पाठ के अंकों के चिक भी पनाये जाते थे और उनके कान काटे तथा छेदे भी जाने थे. पृष्ट ७ वें के टिप्पण में दिये हुए ग्रंथों के अतिरिक्त 'महाभारत' ग्रंथ और प्रापिशलि', स्फोटायन, गाये', शाकल्य', शाकटायन , गालव', भारछाज', काश्यप', चाक्रवर्मण" और सेनक" नामक वैयाकरणों के नाम भी पाणिनि ने दिये हैं और उनका मत प्रकट किया है. पाणिनि से पूर्व पास्क " ने निभक्त लिम्वा जिममें औदुंबरायण, क्रौष्टुकी, शतबलाक्ष मौद्गल्य, शाकणि. शाकटायन, स्थौलाष्टीवी, आग्रायण, औपमन्यव, और्णवाभ, कान्थक्य. कौत्स, गार्ग्य, गालव, चर्मशिरम, नैटीकि, वार्ष्यायणि और शाकल्य नामक वैयाकरणों और निरुक्तकारों के नाम और मत का उल्लेख मिलता है", जिनमें में केवल गार्य, शाकटायन, गालव और शाकल्य के नाम पाणिनि में मिलने हैं, जिसमें अनुमान होता है कि पाणिनि और गाम्क के पूर्व व्याकरण और निरुक्त के पहुन में ग्रंथ उपलब्ध" थे, जिनमें में अब एक भी उपलब्ध नहीं है. . जननाय । इन्द्र के जन्म पर ग्रंथ • के नाम दिय है और अंन में श्रादि लगाकर बनलाया है कि म ग्रंथ बहुत में होंगे यममभन्न जनन दि 30 इस प्रकार पागनि ने केवल 'ग्रंथ शब्द ही नहीं दिया बग्न की ग्रंथों के नाम और उनके विषयों का पता भी दिया है पाणिनि के मूत्र कन प्रय १३७ वानिक पर कान्यायन ने श्रा- म्यायिका का भी उल्लेख किया है और भाष्यकार पतंजलि ने 'वामवदना मुमनोनग और भमरथी प्राण्यायिकाओं के नाम दिये है. के यो लक्षण म्याविय: ५ वर्मा या भि कि विदा ॥ ६.३१५ * ameer A६२११२ इन सूत्री पर का- शिकाकारों ने लिखा है कि पशुओं के म्यामि का संबंध बतलान या उनका विभाग जतलान के बास्त दानला श्रादि के जी निह उनके कानों पर किये जाते ह उनका लक्षण कहत है पाणिनि के इन मंत्रों के अनुसार अएकर्ण. गाः' या अष्टकर्णी गोः का अर्थ यही है कि जिस बल या गो के कान पर पहचान के लिय श्रार का चिह बना हो मे ही पञ्चकर्णी म्वस्तिककर्णी आदि म शब्दों का अर्थ 'पाठ कान वाली श्रादि नही हो सकता जानवर्ग के कानों पर इस प्रकार के नग्ह नरह के चित करने की प्रथा वेदों के समय में भी प्रचलित थी अथर्ववद संहिता में नाब के लुग में दोनों कानों पर 'मिथुन' (स्त्रीपुरुष । का चित्र बनाने का विधान है (अधर्व सं ६) और दूमग जगह कानी क छंदन और उनपर चित करने की प्रथा को बुग बनलाया : ५९२ ४ ६). मंत्रायणी मरिना में इस विषय का पक प्रकरण का प्रकरण है जिसम्म पाया जाना कि वनी नक्षत्र में यह कर्म करना चाहिय नब इमम ममृद्धि होनी है कंवल दाहिने कान पर भी चिज होना था और दोनों कानों पर भी. और उन चिह्नों के नाम से गानों के नाम पड़ने ये 'म्थूणाकर्णी (थंभे के चिह्नवाली ', 'नात्राक' (दांतली के निकवाली । करिकी ( वीणा के चिह्नवाली प्रादि. अलग अलग पुरुषों के अलग अलग चिज होने शं वमिष्ट की मशृणाकणी, जमदग्नि की कर्करिकर्णी आदि बाण के फल से या लोह सचित करने का निषेध किया गया है. या ना चिक नांय म बनाया जाय या मांठे को पानी में भिगोकर उसके डंठल म । मैत्रायणी महिना. ४.२.६) (६२३८.. सुप्यापि (६१.१२॥ पडफाटायम (११२३) पानी मात्र यस्य (८३.२०) किश्चम्य (८३.१६) मटायम (३५११२) डा. ऑपर्ट ने जो शाकटायन का व्याकरण अभयचंद्रमूर की टीका महिन छपवाया है वह पाणिनि के उल्लेख किये हुए प्राचीन शाकटायन का नही कितु जैन शाकटायन का नवीन व्याकरण है जो स की नवी शताब्दी में गएकूट (गठा गजा अमोघवर्ष प्रथम के समय में बना था. कीबोरी मामयम्य (६.३१... रना भार दाजम्य (७२६३। विभिनय 47 पम्य (१.२०५). रच.पक्षम्य ११.३०॥ मियममक स्य (५४११२ ) ५ पाणिनि ने 'धकादिको १२४६३.) मूत्र में यास्क' नाम सिद्ध किया है देखा, कमशः याम्क का निरुक्त-१७२१.११६.३.७१४.६.१३३९०११०८१०८१५:७१५१६ ५३.११५२.१३५.५३२. ३१५१, ४३२११२८ श्रीर ६ ० ३. ५ यह संभव नही कि यास्क अथवा पाणिनि ने नन प्राचार्यों के एक विषय के ग्रंथ कंठस्थ करके उनका तारतम्य विचार कर नया निरुक्त अथवा व्याकरण बनाया हो यदि उस समय लिखना या लिखिम ग्रंथन थे तो क्या पाणिनि और यास्क इन मव प्राचार्यों के ग्रंथों को वेद के मूतों की तरह कंठस्थ करने वालों को मामने बिठाकर उनके मत सुनते गये होंगे और अपना निबंध बना कर स्वयं पटतं और शिष्यों को पटाने गये होग? मशाम छपरााण भान . . साप E "