पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/३३

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भारतवर्ष में लिखन के प्रचार की प्राचीनता 3 'लिपि' शब्द (जिनका अर्थ 'लिखना' है) और 'लिपिकर' (लिखने वाला) तथा 'यवनानी (जिसका अर्थ कात्यायन' और पतंजलि ने " 'यवनी की लिपि' किया है) शब्द बनाने के नियम दिये हैं और 'स्वरित' के चिक' तथा 'ग्रंथ' (पुस्तक) का भी उल्लेख किया है. उसी पुस्तक में बगाभव बबबबन 4 नामक ग्रंथ में लिखा है कि मंग्रह' के, जो वाक्यपदीय' के टीकाकार पुण्यराज के लेखानुसार एक लाख श्लोक का था, अस्त हो जाने पर पतंजलि ने 'महाभाष्य' लिखकर संग्रह' के भाशय का संक्षेप किया. पतंजलि का समय ई.स. पूर्व की दूसरी शताब्दी निश्चित है ऐसी दशा में पाणिनि और पतंजलि के बीच की शताब्दिों का अन्तर होना चाहिये दिवाविभानिशा शिपिक्षिनिस (४१४६) अपमाक्षिणाम् (४१४६ पर वार्तिक ३) बसमाविष्यामिति वयम् पवनामो लिपि (४.१ ४६ पर भाष्य) बरिनाधिकार (१३.११) एक ही बात मार बार दोहराना न पड़ इस लिये पाणिनि ने कुछ बातें शीर्षक की तरह स्थान स्थान पर लिख कर नियम कर दिया है कि इसके आगे यह मिलमिला चलेगा इसको अधिकार कहते है और यह अधिकार स्वरित चिक से जतलाया गया है यह स्वग्नि वेद के उच्चारण के उदात्त, अनुदान, स्वरित की तरह उच्चारण का ऊंचा या नीचा स्वर नहीं किंतु वर्ण पर का लिखित चिक है। भारती नाम परवियो वर्षमा न माधर्म पा १३११ पर काशिका) क्योंकि अष्टाध्यायी का सूत्र- पाठ एकथुनि या एकस्वर का पाठ माना जाता है, उसमें उदात्त. अनुदात्त स्यरित का भेद नहीं हो सकता (कच त्या सूत्रावा पाठान पतंजलि के महाभाप्य के पहले प्राझिक पर कयट की टीका। पतंजलि ने इस मूत्र (१३१३) के व्याख्यान में यह शंका उठाई है कि म्बग्ति में हम यह नहीं जान मकन कि यह अधिकार कहां तक जायगा और इस शंका पर कात्यायन का समाधान लिखा है कि जितने सूत्रों तक अधिकार चलाना हो उतनी ही संख्या का धर्ण उमपर लिख दिया जाय (बाति इनन बना व मी योगामिति वचनानिमम । कैयट ने इमपर दृष्टांत दिया है कि पाम ५। ३० पर 'इ अनुबंध लगा देन में यह जाना जायगा कि यह अधिकार दो सूत्रों तक चलेगा या शिवसूत्रों में जो वणों का क्रम है उसके स्थानीय मान में 31.12.33 इत्यादि गिनती के संकत पाणिनि के स्वरित चिक में होना कात्यायन ने माना है आगे चल कर यह भी कहा है कि जहां अधिकार अधिक संख्या के मूत्रों में जाने वाला है श्री अन वर्ष का हैं वहां अधिकार जनलान वाले मूत्र में पाणिनि ने 'प्राक (अमुक शन्न या मूत्र में पहले पहल) लगाया है (पतंजलि - अर्थ दामो पगलपा मान भूयमय चौमाधिकारोऽभवन में कच मन कतन्यम' कात्यायन -भूखम नम पतंजलि -भूमि प्रामबचन कायम भूमि प्रारमुक्त अनि चक्रव्यमा जहां पर प्राक' शब्द काम में नहीं लिया है और जहां पर मत्रों की संख्या अल (धर्ण से अधिक है (जैसे ३ १ का अधिकार ५४१ मत्रों पर है) यहां कोई और स्वागत निक काम में जाना होगा इसीके अनुमार पा- णिनि ने जहां यह अधिकार किया है कि गश्वर' के पहले पहले मब निपान कहलांवंग (प्रशोनिपातः पा १४४६) वहां शुद्ध 'ईश्वर' शब्द काम में न लाकर कृत्रिम गश्वर काम में लिया है क्योंकि नखर शब्द जहां पाता है वही यह अधिकार समान होता है । धिरी ४६७) आग जहां खर' शब्द पाया है कि सनक सनी ३ ४ १३) वहां तक यह अ- धिकार नही चलता यो गश्वर शब्द काम में लाने से दो ही बातें प्रकट होती है या तो पाणिनि ने अपने आगे के सूत्र तांत की तरह रट लिय थ इससे 'गैलर' पद का प्रयोग किया, या उसने अपना व्याकरण लिख कर तैयार किया जिम- की लिखित प्रति के महारे अधिकार मन्त्र के शम स्थिर किय पाटको से यह कहना व्यर्थ है कि इन दोनों अनुमानों में मे कौन सा मानना उचित है ऐसे ही पाणिनि ने अपने सूत्रों में अपने ही बनाये धानुपाठ में स फण प्रादि मान धातुश्री का किया च मनमा ६४.१२५) 'जक्षिति आदि ६ धातु नित्यादय घट ६० प्रादि उल्लेख किया है वहां यह मानना उचित है कि पाणिनि ने सूत्र बनाने के पहिले धातुपाठ रट रक्खा था, या यह कि धातुपाठ की लिखित पुस्तक उसके सामने थी? ग्रंथ' शब्द पाणिनि ने रचित पुस्तक के अर्थ में लिया है। प्रभुदारुभ्यं यमीऽथे १३ ७४, धितत्य कर्म प ४३८७. हने अन्य ४३११६ आदि) बंद की शाखाओं के लिये, जो ऋषियों मे कही गई है (जिन्हें आस्तिक हिन्दु ऋषियों की बनाई हुई नही मानते) 'प्रोक्त' शब्द काम में लाया गया है, 'कृत' नहीं । नन कम ५ ३ १०१). और 'प्रोक्न ग्रंथों में पुराणप्रोक्न' शब्द के प्रयोग में दिखाया है कि कुछ वेद के ब्राह्मण पाणिनि के पहिले के थे और कुछ उन्हीं के काल के ( पुराणीला मारण कम्पप ४.३ १०४. वार्तिक 'तुल्यकासत्वान'), किंतु पाराशय (पराशर के पुत्र) और कर्मद के भिक्षुसूत्र' तथा शिलालि और कशास के 'नटसूत्रों को न मालूम क्यों 'प्रोक्त' में गिनाया है जो हो. 'भिक्षुशाल' और 'नाट्यशास्त्र' के दो दो सत्र- ग्रंथ उस समय विद्यमान थे (पारामर्थशिक्षाखिभ्या भिमरसूत्रयो । कर्मकामादिनि ४ ३ ११०-११) नवीन विषय पर पहिलं पहिख बनाये हुए ग्रंथ को 'उपहात' कहा है (सपज्ञात ४३ ११५ . उपजोपक्रम नहायाचियामाया १४२१). किसी विषय को लेकर (अधिकृत्य) बने हुए ग्रंथों में शिशुक्रन्दीय (बच्चों के गेने के संबंध का ग्रंथ), 'यमसभीय' (यम की सभा के विषय का ग्रंथ), 'दो नाम मिला कर बना ग्रंथ (जैसे 'अग्निकाश्यपीय -यह नाम पाणिनि ने नहीं दिया ) और रंह-