उसी पुस्तक प्रानीनलिपिमाला भी यौद्ध धर्म के तत्वों को जानने के लिये संस्कृत और प्राकृत का पठन पाठन होने लगा और वहां के बहुतेरे विद्वानों ने समय ममय पर अपनी भाषा में बौद्ध धर्म के संबंध में अनेक ग्रंथ रचे जिनमें हमारे यहां की कई प्राचीन बातों का पता लगता है. ई.स ६९ में बौद्ध विश्वकोष 'फा युभन् चु लिन्' बना, जिसमें 'ललितविस्तर' के अनुसार २४ लिपियों के नाम दिये हैं, जिनमें पहिला ब्रामी और दूसरा ग्वरांष्ठी (किअ-लु-से-टो-क-लु-मे-टो- ग्व-रो-म-र-स्वरोष्ठ) है और 'खरोष्ठ' के विवरण में लिया है कि चीनी भाषा में इस शब्द का अर्थ 'गधे का होट' होता है. में भिन्न भिन्न लिपियों के वर्णन में लिखा है कि 'लिग्वने की कला का शोध तीन दैवी शक्ति वाले आचार्यों ने किया, उनमें से सब में प्रसिद्ध ब्रह्मा है. जिसकी लिपि (ब्राह्मी) बाई ओर मे दाहिनी ओर पड़ी जाती है. उसके बाद किस-नु (किअ-लु-से-टोम्वरोष्ठ का संक्षिप्त रूप) है, जिसकी लिपि दाहिनी ओर मे बाई और पढ़ी जाती है और मब से कम महत्व का सं-की है, जिसकी लिपि (चीनी) ऊपर से नीचे की तरफ़ पढ़ी जाती है. ब्रह्मा और ग्वरोष्ठ भारतवर्ष में हुए और त्सं-की चीन में. ब्रह्मा और खरोष्ठ ने अपनी लिपियां देवलोक में पाई और त्म-की ने अपनी लिपि पक्षी आदि के पैरों के चिहां पर से बनाई. उक्त चीनी पुस्तक के लेग्व मे स्पष्ट हो गया कि जो लिपि बाई मे दाहिनी ओर लिम्वी जाती है उमका प्राचीन नाम 'ब्राह्मी और दाहिनी से बार्ड और लिग्बी जाने वाली का 'ग्वरोष्ठी' था. 'ब्रानी लिपि इस देश की स्वतंत्र और मादेशिक लिपि होने मे ही जैन और बौदों के ग्रंथ भी उमीमें लिग्वे जाने लगे और हमी मे उन्होंने लिपियों की नामावलि में हमको प्रथम स्थान दिया. जय कितने एक यूरोपिअन विद्वानों ने यह मान लिया कि हिंद लोग पहिले लिग्नना नहीं जानने थे तब उनका यह भी निश्चय करने की आवश्यकता हुई कि उनकी प्राचीन लिपि (ब्रामी) उन्होंने स्वयं बनाई वा दमरों मे ली. इस विषय में भिन्न भिन्न विद्वानों ने कई भिन्न भिन्न अटकलें लगाई जिनका मारांश नीच लिग्वा जाता है. डॉ. अॉफ्रेड मूलर का अनुमान है कि मिकंदर के ममय यूनानी लोग हिन्दुम्नान में आये उन- मे यहां वाली ने अत्तर मग्न. मिन्मेप और मनाट ने भी यूनानी लिपि में ब्राह्मी लिपि का बनना अनुमान किया और विलमन्" ने यूनानी अथवा फिनिशिअन लिपि में उमका उड़व माना. हॅलवे ने लिग्वा है कि ब्राह्मी एक मिश्रित लिपि है जिसके पाठ व्यंजन ता ज्यों के त्या ई.म. पूर्व की चाँधी शताब्दी के 'अरमहक अक्षगं में; व्यंजन, दी प्राथमिक स्वर. मय मध्यवर्ती म्वर और अनु- स्वार आरिअनो-पाली(वरोष्ठी) मेः और पांच व्यंजन नथा नीन प्राथमिक स्वर प्रत्यक्ष या गाणम्प म 9 प्रज्ञ नामक श्रमण ई स ८२ में चीन गया बार द स ७५ र १० के बीच उमने श्रार एक दमरे श्रमण ने मिल कर 'महायानवद्धिषटपारमितासूत्र' नथा तीन दुमर पुस्तको का चीनी अनुवाद किया ये थाई म नाम कंवल उदाहरणार्थ दिये गये हैं इंजिल ३४ पृ... ई, जिल्द ३४, पृ २१ ३. ब्रामी लिपि वाम्नव म 'नागर्ग । देवनागरी का प्राचीन प ही है नागर्ग नाम कत्रम प्रसिद्धि में पाया यह निश्चिन नही परंतु नांत्रिक समय में 'नागर ( नागर्ग ) नाम प्रचलित था, क्योंकि निन्यापोइशिकार्णव' की 'सेतुबंध' नामक टीका का की भास्कगनंद पकार । एका त्रिकोण म्प 'नागर (नागर्ग ) लिपि में ना यनलाता है । कोण वयवद. भयो नमो यम्य जन नगनिया म मद थिरक रम्य विकास कारन व नान । ई. ए: जिल्द ३५. पृ २८३) 'वातुलागम' की टीका में लिम्बा है कि शिव मंत्र (ही) के अक्षम शिव की मात नागर' (नागरी) लिपि मे बन सकती है। दूमर्ग लिपियों में बन नही सकती "faबमृत्यसपनि मगनपभिनदायिन यचम मानग्निपिमिकायन शयन । ई.पं. जिल्द ३५.पृ २७६) यूरोपिअन विद्वानों ने 'ब्राह्मी लिपि का पाली' रंडिअन् पाली,' 'साउथ (दक्षिणी) अशोक' या 'लाट लिपि आदि नामों से भी परिचय दिया है परंतु हम इस लेख में मर्यत्र 'ग्रामी' नाम का ही प्रयोग करेंगे १९ जिल्द ३५. पृ.२५३ जम १५, पृ २६८. ५
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