पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/५६

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३० प्राचीनलिपिमाला अवशेषों तक अभी वह नहीं पहुंच सका है. अभी तक प्राचीन शिलालेख जो मिले हैं वे ई. स. पूर्व की पांचवीं शताब्दी मे पहिले के नहीं है, परंतु साहित्य में प्रत्यक्ष या गौण रीति से लेग्वनकला के जो हवाले मिलने हैं व बहुन प्राचीन समय तक जाते हैं. उन सब मे मिद्ध होना है कि लम्बनकला सर्वसाधारण में प्रचलिन. एक पुरानी बात थी जिसमें कोई अनोग्यापन न था. जिननं प्रमाण मिले हैं, चाहं प्राचीन शिलालग्वों के अक्षरों की शैली, और चाहे साहित्य के उल्लेग्व, मभी यह दिखाते हैं कि लम्बनकला अपनी प्रौढावस्था में थी. उमके प्रारम्भिक विकाम के ममय का पता नहीं चलता. ऐसी दशा में यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा मकना कि ब्राह्मी लिपि का आविष्कार कैसे हुआ और हम परिपक्क रूप में. कि जिसमें ही हम उमे पाते हैं, वह किन किन परिव- ननों के बाद पहुंची मिमर आदि में जैसे भावों के मंकेतरूप चित्र हुए और वे शब्दों के मंकन हो कर उनसे अक्षरों के संकेत यने, इम तरह यहां भी किमी चित्रलिपि में ब्राह्मी लिपि बनी, या प्रारम्भ मे ध्वनि के ही मचक चिन्ह बना लिये गये, यह कुछ निश्चय के माथ नहीं कहा जा सकता. निश्चय के साथ इतना ही कहा जा मकता है कि इस विषय के प्रमाण जहां तक मिलते हैं वहां तक वाली लिपि अपनी प्रौढ अवस्था में और पूर्ण व्यवहार में आती हुई मिलनी है और उसका किमी याहरी मान और प्रभाव में निकलना मिट्ट नहीं होता. आर. शाम शास्त्री ने देवनागरी लिपि की उत्पत्ति के विषय का सिद्धांत' नामक एक विस्तृत लग्ख' में यह सिद्ध करने का यत्न किया है कि देवताओं की मूर्तियां बनने के पूर्व उनकी उपासना मां- कनिक चिहा द्वारा होनी थी जो कई त्रिकोण नथा चक्रां आदि में बने हुए यंत्र के, जो देवनगर का. लाता था, मध्य में लिखे जाने धं. दवनगर के मध्य लिखे जाने वाले अनेक प्रकार के मांकनिक चित्र कालांतर में उन उन नामों के पहिले अक्षर माने जाने लगे और देवनगर के मध्य उनका स्थान होने में उनका नाम 'देवनागरी' हुआ. वह लग्न यही गवेषणा के माय लिग्वा गया है और युक्तियुक्त अवश्य है, परंतु जब तक यह सिद्ध न हो कि जिन जिन नांत्रिक पुस्तकों में अवतरण उद्धृत किये गये है वे वैदिक साहित्य के ममय के पहिलं कं. या कम में कम मौर्यकाल में पहिले के हैं, तब तक हम उनका मन स्वीकार नहीं कर मकने. बाब जगन्माहनवमी ने एक लंबा चौडा लग्ब लिग्न कर यह बतलान का यन किया है कि 'वैदिक चित्रलिपि या उममें निकली हुई मांकनिक लिपि में ब्राह्मी लिपि का विकाम हुआ. परन्तु उम लग्न में कल्पित वैदिक चित्रलिपि के अनक मनमानं चित्र अनुमान कर उनम भिन्न अक्षरों के विकास की जो कल्पना की गई है उममें एक भी अक्षर की उत्पत्ति के लिये कोई भी प्राचीन लिग्विन प्रमाण नहीं दिया जा सका. ऐसी दशा में उनकी यह कल्पना गेचक होने पर भी प्रमाणरहित होन में म्वीकार नहीं की जा मकनी. मात्र, जगन्माहनवा ने इमर्ग बात यह भी निकाली है कि 'ट. '3, 'इ.' 'ढ' और 'ए' ये पांच मूर्धन्य वर्ण आयों के नहीं थे. वैदिक काल के प्रारंभ में अनायाँ की भाषा में मृर्धन्य वर्णों का प्रयोग जब आयां ने दम्बा तय वे उनके कानों को बड़े मनोहर लगे, अतएव उन्होंने उन्हें अपनी भाषा में ले लिया. इमके प्रमाण में लिखा है कि पारमी प्रायों की वर्णमाला में मूर्धन्य वर्णों का मर्वथा अभाव है और धातुपाठ में थोड़े से धातुओं को छोड़ कर शेष काई धातु ऐमा नहीं जिसके आदि में मूर्धन्यवर्ण हो', परंतु पारसी आयों के यहां केवल मूर्धन्यवाणां का ही अभाव है यही नहीं किंतु उन की वर्णमाला में 'छ, 'म' और 'ल' वर्ण भी नहीं है और वैदिक या संस्कृत साहित्य में 'प्र से प्रारंभ होने वाला कोई धातु या शब्द भी नहीं है. तो क्या 'छ,' 'भ', 'ल' और 'प्र वर्ण > १; जि.३५ पृ २५३-६७, २७०-६०.३११.२५ • सरस्वती; ई म १९१४, पृ ३७०-७१. मरम्यनी, स १९१३ मे १९१७ तक की जगह