पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/५७

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खगष्ठी लिपि की उत्पत्ति. ३१ भी अनार्यों से ही लिये गये? और 'ण' में प्रारंभ होने वाले बहुत से और जिनमें मूर्धन्य वर्गों का प्रयोग हुमा हो ऐम हजारहां शब्द वैदिक साहित्य में पाये जाते हैं. ग्रीक आर्यों की भाषा मेंट' और ड' ही हैं, 'त' और 'द का मर्वथा अभाव है और सेमिटिक अनार्यों की लिपियों में मृधन्य वर्गों का मर्वथा अभाव पाया जाता है (देवो पृ. २३ में छपा हुश्रा नक्शा); इसी से ग्रीका ने फिनिशिअन अक्षर 'नाव' ('न का मृचक ) में टाओ (ट'), और दालेध ('द') में डल्टा ('ड') बनाया में बात्र जगन्माहनवर्मा का यह दमरा कथन भी आदरणीय नहीं हो मकना. गामी दशा 3-ग्वगंठौ निपि को उत्पत्ति. मार्यवंशी गजा अशांक क अनेक लम्बा में में कंबल शहबाज़गढ़ी और मान्संग के चटा- नों पर ग्वुदं हुए लग्व ग्वरोष्ठी लिपि में है. जिनमें पाया जाता है कि यह लिपि ई.म पूर्व की नीमर्ग शताब्दी में कंवल भारतवर्ष के उत्तरी-पश्चिमी मीमांत प्रदेश के आम पाम. अर्थात पंजाब के गांधार - प्रदेश में प्रचलित थी. अशोक में पर्व का हम लिपि का कोई शिलालम्ब अब तक नहीं मिला, परंतु ईगनियों के कितनं एक चांदी के मोटे भिको पर ब्राह्मी या ग्बरांष्ठी लिपि के एक एक अक्षर का ठप्पा लगा हुआ मिलता है. जिममं अनुमान होता है कि पंजाय की नगफ चलने वाले ये ईगनी मि, मभवनः मिकंदर में पूर्व के अर्थात ई. म. पूर्व की चौथी शताब्दी के ही क्योंकि सिकंदर के विजय ने ईगनिया का अधिकार पंजाव पर मे उठ गया था. 3 ट में प्रारंभ होने वाले धातु २ टल टिक टिप टीक और ट्वल हे 'ड मे प्रारंभ होने वाले यान -प - टंय दंभ टिप टिम और ईार. दम प्रारंभ न वाला धान दायरे पानि न धानुपाठ मे बहन से धात ग सामान वाल मान है। गी न पा ६।१५ उपमर्गा दममामापिणापंदशम्य पा. युरोपिअन विद्वानों ने स्वर्गमा लिपि का वादिन वारियन पाली आरिअनोशनी नार्थ उत्तरी अशोक कावुलिअन और गाधार आदि नामो से भी परिचय दिया है परंतु हम उस लग्य में स्वर्गठी नाम का ही प्रयोग करेंगे खरोष्ठी नाम के लिय देखा ऊपर- गजा अशाक के लग्व जिन जिन थाना में मिले है उनके लिय देखा ऊपर पृ-टिपण ५ उक्त टिप्पण में दिय हुए स्थानों के नामी में अलाहाबाद । प्रयाग ) का नाम भी जोड़ना चाहिंय ना वहा छपन से रह गया है , प्राचीन काल में गांधार वंश में पंजाय या पश्चिमी हिम्मा तथा अफगानिस्तान का पूर्वी हिम्मा अर्थान उत्तर- पश्चिमी सीमान्त प्रदेश के ज़िले पेशावर और गवर्नापडी तथा अफगानिस्तान का ज़िला काबुल गिना जाता था ईगन के प्राचीन चांदी के सिर गाली की प्राकृति के होने थे जिनपर ठप्पा लगाने म व कुछ चपटे पड़ जाते थे परंतु बहुत मोट और भई हांत थं उनपर कोई लख नही होता था कित मनुष्य श्रादि की भई। शकलो के टाप लगते थे ईरान के ही नहीं कितृ लीडिया. ग्रीस आदि के प्राचीन चांदी के सिके भी इंगनी मिक्को की नाई गोल भह, गोली की शकल के चांदी के टुकड़े ही होने थे कंघल हिंदुस्तान में ही प्राचीन काल में चाकूट या गोल चांदी के सुंदर चपटे सिकं, जिन्हें कार्षापण कहते थे, बनते थे. कोथिया वालों ने भी पीछे से चपटे मिक बमाय जिसकी देग्वा देखी दुसरे देशवालों ने भी चपटे सिकं बनाये ( क. कॉ ए ई.पृ३' र प्रॉफेसर रॅपसन ने कितने एकांगनी चादी के सिको के चित्र विवरण सहित छाप है (ज रॉ ए सी.ई.स १८६५, पृ.८६५-७७, तथा पृ ८६५ के सामने का प्लेट, संख्या १-२५ जिनपर ब्राह्मी लिपि के 'यो' 'व', प' 'ज'और 'गो' अक्षर और लरोष्ठी लिपिके'म' में मं, निद' और 'ह'अक्षरों के उप्पे लगे हुए हैं