पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/६३

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प्राचीन लिपियों का पढ़ा जाना. ही अंतर पाया जाता है जितना कि इम समय छपी हुई नागरी की पुस्तकों नथा राजपूनान के अधिकतर रजवाड़ों के मामूली पड़े हुए हल्कारों की लिग्वावटों में, ई.स. की तीमरी शताब्दी के आस पास तक इस लिपि का कुछ प्रचार पंजाब में बना रहा, जिसके बाद यह इस देश में मे सदा के लिये अस्त हो गई और इसका स्थान ब्राह्मी ने ले लिया, तो भी हिंदुकुश पर्वत मे उत्तर के देशों तथा चीनी तुर्किस्तान आदि में, जहां बौद्ध धर्म और भारतीय सभ्यता दृढ हो रही थी, कई शताब्दी पीछे तक भी इम लिपि का प्रचार बना रहा प्रमिद पुरातत्ववेत्ता डॉ. सर ऑरल स्टाइन ने चीनी तुर्किस्तान आदि प्रदशों मे असाधारण श्रम कर जो प्राचीन वस्तुएं एक- त्रित की हैं उनमें इम लिपि में लिम्वे हुए पुस्तक और लकड़ी की लिग्विन तस्मियां आदि बहुमूल्य सामग्री भी है. ४-प्राचीन लिपिया का पढ़ा जाना. उम भारतवर्ष के विद्वान ई. म. की १४ वीं शताब्दी के पहिले ही अपने देश की प्राचीन लिपि ब्रामी तथा उसमें निकली हुई ई. म. की छठी शताब्दी तक की लिपियों का पढ़ना भूल गये थे, परंतु पिछली अर्थात् ७ वीं शताब्दी से इधर की लिपियां, संस्कृत और प्राकृत के विद्वान, जिनको प्राचीन हस्तलिग्विन पुस्तकों के पन का अभ्याम था, गन्न करने मे पढ़ मकते थे ई. म १३५६ में देहली के सुल्तान फ्रीगंज़शाह तुग़लक ने बड़े उत्साह के साथ टोपरा' तथा मेरठ में अशोक के लग्बों वाले दो विशाल स्तंभ उठवा कर असाधारण श्रम में देहली में लाकर एक ( मवालक स्तंभ ) को फ़ीरोज़- शाह के कटरे में और दूसरे को 'कुश्क शिकार ( शिकार का महल ) के पाम ग्वड़ा करवाया ने उन स्तंभों पर के लेग्वों का प्राशय जानने के लिये यहुन में विद्वानों को एकत्र किया परंतु किसी मे वे पढ़े न गये यह भी प्रमिति है कि बादशाह अकबर का भी उक्त लेखों का प्राशय जानने की बहुत कुछ जिज्ञासा रही परंतु उम ममय एक भी विठान ऐसा न था कि उनको पढ़ कर बादशाह की जि- ज्ञामा पूर्ण कर सकता. हिंदुस्तान में अंगरेजों का राज्य होने पर फिर विद्या के सूर्य का उदय हुआ और प्राचीन वस्तुओं का मान होने लगा. तारीख १५ जनवरी सन १७८४ ई. को सर विलियम जोन्स की प्रेरणा से एशिश्रा खंड के प्राचीन शिलालेख, ताम्रपत्र, मिक, इतिहास, भूगोल, भिन्न भिन्न शास्त्र, रीन रवाज, शिल्प आदि विद्या में संबंध रखने वाले मभी विषयों का शोध करने के निमित्त 'एशियाटिक सोसा- चना करते ममय उक्त कथन का विरोध किया है (इ , जि ४२, पृ. १६६) यह निश्चित है कि ब्राह्मणों ने खगेष्ठी लिपि को अपने धर्मग्रंथों में कभी स्थान नही दिया क्योंकि वह उनक लिखे जाने के योग्य ही न थी और जिनने लेख अब तक उस लिपि के मिले हैं उनमें एक भी ऐसा नहीं है जो ब्राह्मण के धर्म से संबंध रखता हो । पंजाब के ज़िले अंबाला में ( सवालक में ). २ टोपरा का (सवालक) स्तंभ किस प्रकार महान् परिश्रम तथा उत्साह के साथ देहली में लाया गया इसका वृत्तान्त समकालीन लेखक शम्स-इ-शीराज ने तारीख-इ-फीरोज़शाही में किया है (हि.जि ३, पृ ३५०-५३ ) ६. यह स्तंभ देहली में 'रिज' नामक पहाड़ी पर गदर की यादगार के स्थान के पास है कामा स.विजि १, पृ. १६३ ४