प्राचीनलिपिमाला. पादरी जेम्स स्टिवन्सन ने भी प्रिन्सेप् की नाई इसी शोध में लग कर 'क, 'ज,' प और 'व' अक्षरों' को पहिचाना और इन अक्षरों की सहायता से लेखों को पढ़ कर उनका अनुवाद करने का उद्योग किया गया परंतु कुछ तो अक्षरों के पहिचानने में भूल हो जाने, कुछ वर्णमाला पूरी ज्ञान न होने और कुछ उन लेखों की भाषा को संस्कृत मान कर उसी भाषा के नियमानुसार पढ़ने से वह उद्योग निष्फल हुआ. इससे भी मिन्सेप को निराशा न हुई. ई स १८३० में प्रसिद्ध विद्वान् लॅसन ने एक बाकट्रिमन ग्रीक सिक्के पर इन्हीं अक्षरों में अगॅथॉलिस का नाम पढ़ा. ई.स १८३७ में मि. प्रिन्सप ने सांची के स्तृपों से संबंध रखने वाले स्तंभों आदि पर खुदे हुए कई एक छोटे छोटे लेग्वों की छापें एकत्र कर उन्हें देग्वा तो उनके अंत के दो अक्षर एकम दिग्वाई दिये और उनके पहिले प्रायः 'स' अक्षर पाया गया जिमको प्राकृत भाषा के संबंध कारक के एक वचन का प्रत्यय (संस्कृत 'स्य से) मान कर यह अनुमान किया कि ये सब लेम्ब अलग अलग पुरुषों के दान प्रकट करते होंगे और अंत के दोनों अक्षर, जो पढ़े नहीं जाने और जिनमें से पहिले के साथ 'आ' की मात्रा और दमरे के साथ अनुस्वार लगा है उनमें से पहिला अक्षर 'दा और दूसरा 'नं' ( दानं ) ही होगा. इस अनुमान के अनुसार 'द' और 'न' के पहिचान जाने पर वर्णमाला संपूर्ण हो गई और देहली. अलाहाबाद, सांची, मधिश्रा, रधिमा, गिरनार, धौली आदि के लेख सुगमता पूर्वक पढ़ लिये गये इससे यह भी निश्चय हो गया कि उनकी भाषा जो पहिले संस्कृत मान ली गई थी वह अनुमान ठीक न था, परन उनकी भाषा उक्त स्थानों की प्रचलित देशी ( प्राकृत ) भाषा थी. इस प्रकार प्रिन्सेप आदि विद्वानों के उद्योग मे ब्रामी अक्षरों के पढे जाने से पिछले समय के सय लग्वों का पढ़ना सुगम हो गया क्योंकि भारत- वर्ष की समस्त प्राचीन लिपियों का मल यही ब्राह्मी लिपि है. कर्नल जेम्म टॉड ने एक घड़ा मंग्रह बाकट्रिअन ग्रीक, शक, पार्थिअन् और कुशनवंशी राजाओं के प्राचीन सिकों का किया था जिनकी एक और प्राचीन ग्रीक और दमरी भार ग्बगेष्टी अक्षरां के लंग्व थे जनरल बंटुग ने ई स १८३० में मानिकिाल के स्तूप को खुदवाया तो उसमें से कई एक मिक और दा लग्न म्वगष्ठी लिपि के मिलं. इनके अतिरिक्त सर अलंकजंडर बर्न्स आदि प्राचीन शोधकों ने भी बहुत में प्राचीन मिकं एकत्र किये जिनके एक ओर के प्राचीन ग्रीक अक्षर तो पढ़े जाते थे परंतु इमरी और के स्वरोष्ठी अक्षरों के पढ़ने के लिये कोई माधन न था इन अक्षरों के लिये भिन्न भिन्न कल्पनाएं होने लगी ई स १८२४ में कर्नल जेम्स टॉड ने कडफिर्मम के सिकं पर के इन अक्षरों को 'मसेनिअन' प्रकट किया' ईम में एपोलाडास के मिकं पर के इन्हीं अक्षरों का प्रिन्सेप ने पहलवी' माना और एक दूसरे मिके पर की इसी लिपि' को नया मानिकिमाल के लेब की लिपि को भी पाली (ब्रामी) बतलाया और उनकी आकृति टेढ़ी होने में यह अनुमान किया कि छापं और महाजनी लिपि के नागरी अक्षरों में जैसा अंतर है वैमा ही दहली आदि के अशांक के लग्वों की पाली ( ब्राली ) लिपि और इनकी लिपि में है, परंतु पीछे से स्वयं प्रिन्सेप को अपना अनुमान अयुक्त जंचने लगा arrafa . ज ए सो बंगा, जि ३ पृ ४८५ न'को 'र' पढ़ लिया था और को पहिचाना न था ३ प्रिं, ', जि. १, पृ ६३-६६ । परि; जि.१८.५७८ ५. ज ए. सो. बंगा; जि २, पृ ३१३ जप सो. बंगा; जि २, पू ३१३, ३१६ .. ज ए सो. बंगा; जि३. पृ. ३१८. ज.प. सो. बंगा: जि ३, पृ. ३१६
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