पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्राचीन लिपियों का पढ़ा जाना ३६ प्राबिपि. ई.स. १८३५ में डबल्यू ऍच. बॉथन ने वल्लभी के कितने एक दानपत्र पढ़े ई. स. १८३७-३८ में जेम्स प्रिन्मेप ने देहली, कहाऊं और एरण के संभों तथा सांची और अमरावती के स्तृपों और गिरनार के चटान पर के गुप्तलिपि के लेग्व पड़े'. कप्तान ट्रॉयर, डॉ. मिल तथा जेम्स प्रिन्सेप के श्रम मे चाम विल्किन्मन् की गुप्तलिपि की अधूरी वर्णमाला पूर्ण हो गई और गुप्तवंशी राजाओं के ममय के शिलालम्ब, नाम्रपत्र और सिक्कों के पढ़ने में मुगमता हो गई. ब्रामी लिपि गुप्तलिपि से पुरानी होने के कारण उमका पढ़ना बड़ा दुस्तर था. ई. स १७६५ में मर चार्म मेलेट ने इलोरा की गुफाओं के कितने एक छोटे छोटे लेवों की छापें नय्यार कर मर विलिश्रम जोन्म के पाम भजी. फिर ये लापं विल्फई के पास पढ़ने को भेजी गई परंतु जब वे पड़ी न गई तो एक पंडित ने कितनी एक पाचीन लिपियों की वर्णमालाओं का पुस्तक विल्फई को पतला कर उन लेग्वों को अपनी इच्छा के अनुमार कुछ का कुछ पढ़ा दिया. विल्फई ने इस तरह पढ़े हुए वे लेग्ब अंग्रेजी अनुवाद महिन मर विलियम जोन्स के पास भेज दिये. बहुत बरसों तक उन लेखों के शुद्ध पड़े जाने में किसी को शंका न हुई परंतु पीठ में उनका पढ़ना और अनु. वाद कपोल कल्पित मिद हुए. बंगाल पशिप्राटिक मोमाइटी के संग्रह में देहनी और अनाहाबाद के नंभों तथा ग्वंडगिरि के चटान पर खुदे हुए नवों की हो या गई थी परंतु विकर्ड का यन निकन दोन में कितने एक वर्षों तक उन लेग्वों के पढ़ने का उपांग नहुना उनले का प्राय जानने की जिजामा रहने के कारण जेम्स प्रिन्सेप न ई. म १३४-३५ में अनादाबाद रविना और मावा नमी पर के लग्बों की छापे मंगवाई और उनको दहली के नग्ब म मिना कर रह जानना चाहा कि उनमें कोई शब्द एकमा टस प्रकार उन चारों नवों को पाम राम ग्व कर मिलाने में नुत ही यह पाया गया कि वे वागं लाव एही है. उन नसकिएका नामाह या पोर उमं अपनी जिजामा पूर्ण होने की दृढ अाशा बंधी फिर अलाहाबाद के भगव में नित्र भिन्न प्राकृति के अक्षरों को अलग अलग ट्रांटने पर गन विदित हो गया कि गुजानगे के समान उनमें भी कितने एक अक्षगं के माथ म्बरों की मात्राओं के पृषक पृथक पांच चिह नगे हुए हैं. जं. एकत्रित कर प्रकट किये इसमे कितने एक विद्वानों को रफ अनर्ग के यनानी होने का जो भ्रन था वह दूर हो गया. म्बरों के चिका को पहिचानने के बाद मि प्रिन्मेप ने अनगं के पहिचानने का उन्यांग करना शुरू किया और उक्त लेम्व के प्रत्येक अक्षर को गुमलिपि में मिलाना और जो मिलना गया उमको वर्णमाला में क्रमवार रग्बना प्रारंभ किया हम प्रकार बहन में अक्षर पहिचान में आ गये वा नहीं. गंय'. ४ ज प. मी बंगा जि४४७५ ज ए. सो यंगा. जि ६. पृ.१८, ४५५ जि ७ पृ ३६.३३७ ६२६६३३ ज.प सा.बंगाः जि ३. पृ प्लेट। प्रशांक के लेखो की लिपि मामूली देखने वाले को अंग्रजी या ग्रीक लिपि का भ्रम उत्पन्न कग दे ऐसी है टॉम कोरिअट् नामक मुसाफिर ने अशोक के दहली क स्तंभ के लम्ब को देख कर ऍल विटकर को एक पत्र में लिखा कि मैडम देश (हिंदुस्तान) के देली (देहला) नामक शहर में आया जहां पर अलकज़डर दी ग्रेट' सिकंदर) ने हिंदुस्तान के राजा पारस को हगया और अपनी विजय की यादगार में उसने एक बृहन् स्तंभ खड़ा करवाया जो अब तक वहां विद्यमान है ( केरस् बॉयेजिज़ पंड देवल्स. जि ६, पृ ४२३, क. पास गिजि . पृ. १६३). इस तरह जब टॉम कोरिषद ने अशोक के लेखवाले स्तंभ को बादशाह सिकंदर का खड़ा करवाया हुआ मान लिया तो उस पर के लेख के पंढ़ न जाने नक दूसरे यूरोपिअन् यात्री आदि का उसकी लिपि को प्रीक मान लेना कोई आश्चर्य की बात नहीं है पादरी एडवई टेग ने लिखा है कि 'टॉम कोरिभट ने मुझ से कहा कि मैंने देली ( देहली ) में प्रोक लेख वाला एक बहुत बड़ा पाषाण का स्तंभ देखा जो 'अलेक्जेंडर दी प्रेट' ने उस प्रसिद्ध विजय की यादगार के निमित्त उस समय वहां पर खड़ा करवाया था' (क; प्रा.स रि; जि.१, पृ १६३-६४) इसी तर दूसरे लेखकों ने लेखको ग्रीक लेखमान लिया था