४२ प्राचीनलिपिमाला पिमावा, बी और अशोक के लेखों की लिपि से बहुत कुछ भिन्नता पाई जाती है जिससे अनुमान होता है कि भहिमोलु के लेखों की लिपि अशोक के लेखों की लिपि से नहीं निकली किंतु उस प्राचीन ब्राह्मी से निकली होगी जिससे पिप्रावा, बी और अशोक के लेखों की लिपि निकली है. यह भी संभव है कि भट्टिमोलु के स्तृप की लिपि ललितविस्तर की 'द्राविड लिपि' हो क्योंकि वे लेख द्रविड देश के कृष्णा जिले में ही मिले हैं अशोक से पूर्व के जैन 'समवायांग मत्र' में तथा पिछले बने हुए 'ललितविस्तर में ब्रामी के अतिरिक्त और बहुतसी लिपियों के नाम मिलते हैं, परंतु उनका कोई लेख अब तक नहीं मिला जिसका कारण शायद यह हो कि प्राचीन काल में ही वे सब अस्त हो गई हों भार उन- का स्थान अशोक के समय की ब्राह्मी ने ले लिया हो जैसा कि इस समय संस्कृत ग्रंथों के लिम्बने नथा छपने में भारतवर्ष के भिन्न भिन्न विभागों की भिन्न भिन्न लिपियों का स्थान बहुधा नागरी लिया है. ई.स. पूर्व की पांचवीं शताब्दी से पहिले की ब्राह्मी का कोई लेग्न अब- तक नहीं मिला; अतएव इस पुस्तक की ब्रामी लिपि का प्रारंभ ई. म. पूर्व ५०० के पास पास से ही होता है. हस्तलिम्वित लिपियों में मर्वत्र ही समय के माय और लेग्नकों की लेग्वन मचि के अनुसार परिवर्तन हुना ही करना है. ब्राह्मी लिपि भी इस नियम में बाहर नहीं जा सकती. उसमें भी समय के माथ बहुत कुछ परिवर्तन हुआ और उममे कई एक लिपियां निकलीं जिनके अक्षर मूल अक्षरों मे इतने बदल गये कि जिनको प्राचीन लिपियों का परिचय नहीं है वे सहमा यह स्वीकार न करेंगे कि हमारे देश की नागरी, शारदा (कश्मीरी), गुरमुग्वी (पंजाबी), बंगला, उडिया, तेलुगु, कनडी, ग्रन्थ, नामिळ आदि ममस्त वर्तमान लिपियां एक ही मूल लिपि ब्रानी में निकली हैं. ब्राह्मी लिपि के परिवर्तनों के अनुमार हमने अपने सुभीने के लिये उसके विभाग इस तरह किये हैं- ई. स. पूर्व ५०० के आम पास से लगा कर ई स. ३५० के आस पास तक की समस्त भारतवर्ष की लिपियों की संज्ञा ब्रानी मानी है. इसके पीछे उसका लेग्वन प्रवाह दो स्रोतों में विभक्त होता है जिनका उत्सरी और दक्षिणी शैली कहेंगे. उत्तरी शैली का प्रचार विंध्य पर्वत मे उसर के तथा दक्षिणी का दक्षिण के देशों में बहुधा रहा तो भी विंध्य से उत्तर में दक्षिणी, और विंध्य से दक्षिण में उत्तरी शैली के लेग्व कहीं कहीं मिल ही आते हैं. उत्तरी शैली की लिपियां ये है- १ गुतलिपि-गुप्तवंशी राजाओं के ममय के लग्यों में सारे उत्तरी हिंदुस्तान में इस लिपि का प्रचार होने से इसका नाम 'गुप्तलिपि' कल्पित किया गया है. इसका प्रचार ई.स. की चौथी और पांचवीं शताब्दी में रहा २. कुटिललिपि-इसके अक्षरों तथा विशेष कर म्बरों की मात्राओं की कुटिल प्राकृतियों के कारण इसका नाम कुटिल रकवा गया. यह गुप्तलिपि मे निकली और इसका प्रचार ई. स. की छठी शताब्दी से नवीं तक रहा, और इसीसे नागरी और शारदा लिपियां निकली. नागरी-उत्तर में इसका प्रचार ई. स. की हवीं शताब्दी के अंत के आस पास से मिलता है परंतु दक्षिण में इसका प्रचार ई. स. की आठवीं शताब्दी से होना पाया जाता है क्योंकि दक्षिण के राष्ट्रकूट (राठौड़) वंशी राजा दंतिदुर्ग के सामनगढ़ ( कोल्हापुर राज्य में) से मिले हुए शक संवत् ६७५ (ई स ७५४ ) के दानपत्र' की लिपि नागरी ही है और दक्षिण के पिछले कई राजवंशों ३ ।.एँ; जि. १९, पृ. ११० से ११३ के सामने लेट.
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