४३ ब्राह्मी लिपि के लेखों में इसका प्रचार ई. स. की १६ वीं शताब्दी के पीछे नक किसी प्रकार मिल पाता है. दक्षिण में इसको 'नंदिनागरी' कहते हैं. प्राचीन नागरी की पूर्वी शाग्वा से बंगला लिपि निकली, और नागरी से ही कैथी, महाजनी, राजस्थानी (राजपूताने की) और गुजराती लिपियां निकली हैं. ४. शारदा-इस का प्रचार भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों अर्थात् कश्मीर और पंजाय में रहा. ई. म. की = वीं शताब्दी के राजा मेम्वर्मा के लेखों से (देखो लिपिपत्र २२ वां) पाया जाता है कि उस समय तक तो पंजाब में भी कुटिल लिपि का प्रचार था. जिसके पीछे उसी लिपि से शारदा लिपि बनी. उसके जितने लेग्व अब तक मिले हैं उनमें मय से पुराना लेख सराहां (चंवा राज्य में) की प्रशस्ति है, जो ई.स की दसवीं शताब्दी की अनुमान की जा मकती है इमी लिपि से वर्तमान कश्मीरी और टाकरी लिपियां निकली हैं और पंजाबी अर्थात् गुरमुग्वी के अधिकतर अक्षर भी इसीसे निकले हैं. बंगला-यह लिपि नागरी की पूर्वी शाखा मे ई.स. की १० वीं शताब्दी के आस पास निकली बदाल के स्तंभ पर खुदे हुए नारायणपाल के समय के लेग्व में, जो ई.स की १० वीं शताब्दी का है, बंगला का झुकाव दिग्वाई देता है. इसीमे नेपाल की ११ वीं शताब्दी के बाद की लिपि, तथा वर्तमान बंगला, मैथिल और उडिया लिपियां निकली हैं दक्षिणी शैली की लिपियां प्राचीन ब्राह्मी लिपि के उम परिवर्तित रूप से निकली हैं जो क्षत्रप और आंध्रवंशी राजाओं के समय के लग्दों में, नथा उनसे कुछ पीछे के दक्षिण की नामिक, कार्ली आदि गुफाओं के लग्बों में पाया जाता है दक्षिणी शैली की लिपियां नीचे लिखी हुई हैं १. पश्चिमी-यह लिपि काठियावाड़, गुजरात, नासिक. ग्वानदंश और सतारा जिलों में, हैदरा- बाद राज्य के कुछ अंशों में, कौंकण में तथा कुछ कुछ माहमोर राज्य में, ई म. की पांचवीं शताब्दी के आम पाम से नवीं शताब्दी के ग्राम पास नक मिलनी है ई.स. की पांचवीं शताब्दी के आम पास इसका कुछ कुछ प्रचार राजपूताना तथा मध्य भारत में भी पाया जाता है इसपर उत्सरी लिपि का बहुत कुछ प्रभाव पड़ा है. भारतवर्ष के पश्चिमी विभाग में हमका अधिकतर प्रचार होने के कारण इसका 'पश्चिमी' यह नाम कल्पित किया गया है. २. मध्यप्रदेशी-यह लिपि मध्यप्रदेश, हैदरायाद राज्य के उत्तरी विभाग, नथा बुंदेलखंड के कुछ हिस्मों में ई. म की पांचवीं शताब्दी में लगा कर आठवीं शताब्दी के पीछे नक मिलती है. इम लिपि के अक्षरों के मिर चौकुंटे या संदक की सी आकृति के होते हैं जो भीतर से बहुधा ग्वाली, परंतु कभी कभी भरे हुए भी, होते हैं. अक्षरों की प्राकृति बहुधा समकोणवाली होती है, अर्थात् उनके बनाने में आड़ी और ग्वाड़ी रेखाएं काम में लाई गई हैं, न कि गोलाईदार. इस लिपि के ताम्र- पत्र ही विशेष मिले हैं, शिलालग्ब बहुन कम ३ तेलुगु-कनडी--यह लिपि यंबई इहाने के दक्षिणी विभाग अर्थात् दक्षिणी मगठा प्रदेश, शोलापुर, बीजापुर, बेलगांव, धारवाड़ और कारवाड़ जिलों में, हैदराबाद राज्य के दक्षिणी हिस्सों में, माइसोर राज्य में, एवं मद्रास इहाने के उत्तर-पूर्वी विभाग अर्थात् विज़गापहम् , गोदावरी, कृष्णा, कर्नेल, बिलारी, अनंतपुर, कडप्पा, और नेल्लोर जिलों में मिलती है. ई.स. की पांचवीं शताब्दी से १४ वीं शताब्दी तक इमकं कई रूपांतर होते होते इसीसे वर्तमान तेलुगु और कनडी लिपियां बनी इसीमे इसका नाम तेलुगु-कनडी रक्खा गया है ४. ग्रंथलिपि-यह लिपि मद्रास इहाते के उत्तरी व दक्षिणी मार्कट, सलेम्, ट्रिचिनापली, मदरा और तिग्मेवेल्लि जिलों में मिलती है. ई.स. की सातवीं शताब्दी से १५ वीं शताब्दी तक इसके का रूपांतर होते होने इससे वर्तमान ग्रंथालिपि बनी और उससे वर्तमान मलयालम् और तुळु लिपियां
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