पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/७०

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प्राचीनलिपिमाला. भरे हुए, निकली मद्रास इहाते के जिन हिस्सों में तामिळ लिपि का, जिसमें वर्षों की अपूर्णता के कारण संस्कृत ग्रंथ लिखे नहीं जा सकते, प्रचार है वहां पर संस्कृत ग्रंथ इसी लिपि में लिखे जाते हैं इसीसे इसका नाम 'ग्रंथलिपि' (संस्कृत ग्रंथों की लिपि) पड़ा हो ऐसा अनुमान होता है. ५. कलिंग लिपि-यह लिपि मद्रास इहाने में चिकाकोल और गंजाम के बीच के प्रदेश में वहां के गंगावंशी राजाओं के दानपत्रों में ई. स. की ७ वीं से ११ वीं शताब्दी के पीछे तक मिलती है. इसका सब से पहिला दानपत्र [गांगेय संवत् ८७ का मिला है जो गंगावंशी राजा देवेंद्रवर्मन् का है. उसकी लिपि मध्यप्रदेशी लिपि से मिलती हुई है अक्षरों के सिर संदूक की प्राकृति के, भीतर से हैं और अक्षर बहुधा समकोणवाले हैं (लिपिपत्र ५७ में दी हुई राजा देवेंद्रवर्मन के दानपत्र की लिपि को लिपिपत्र ४१ से मिला कर देखो); परंतु पिछले ताम्रपत्रों में अक्षर समकोणवाले नहीं, किंतु गोलाई लिये हुए हैं और उनमें नागरी, तेलुगु-कनडी तथा ग्रंथलिपि का मिश्रण होता गया है. ६. तामिळलिपि-यह लिपि मद्रास इहाने के जिन हिस्सों में प्राचीन ग्रंथलिपि प्रचलित थी वहां के, तथा उक्त इहाने के पश्चिमी तट अर्थात् मलबार प्रदेश के तामिळ भाषा के लेखों में ई. स. की सातवीं शताब्दी से बराबर मिलती चली आती है. इस लिपि के अधिकतर अक्षर ग्रंथलिपि से मिलते हुए हैं (लिपिपत्र ६० में दी हुई लिपि को लिपिपत्र ५२ और ५३ में दी हुई लिपित्रों से मिला कर देखो); परंतु 'क', 'र' मादि कुछ अक्षर उत्तर की ब्राह्मी लिपि से लिये रूपांतर होते होते वर्तमान तामिळलिपि बनी इस वास्ते इसका नाम तामिळ रक्खा गया है. वहेछुत्तु-यह तामिळ लिपि का ही भेद है और इसे त्वरा से (घसीट) लिखी जाने वाली तामिळ लिपि कह सकते हैं. इसका प्रचार मद्रास इहाते के पश्चिमी तट तथा सब से दक्षिणी विभाग के ई.स. की ७ वीं से १४ वीं शताब्दी तक के लेम्बों तथा दानपत्रों में मिलता है परंतु कुछ समय से इसका प्रचार नहीं रहा. वैदिक काल में ब्राह्मी लिपि के ध्वनिमचक संकेत या अक्षर नीचे लिम्बे अनुसार माने जाते थे- स्वर. उ ऋ' दीर्घ [0] मा [ल: ?] संध्यचर. ए श्रो औ इनके प्लुन पर मा औ३ । आज कल 'ऋ' और 'लु' का उचारण बहुधा सब लोग 'रि' और 'लि' के सदृश करते है. दक्षिण के कुछ लोग 'क' और 'ल'के से विलक्षण उच्चारण करते हैं और उत्तर-भारत के कितने एक वैदिक र' और 'ल'के से उच्चा- रख करते हैं। परंतु वास्तव में ये तीनों उच्चारण कल्पित ही है. 'ऋ' और 'लू', 'र' और 'ल' के स्वरमय उच्चारण थे जो बिना किसी और स्वर की सहायता के होते थे, परंतु बहुत काल से वे लुप्त हो गये हैं. अब तो केवल उनक अक्षरसं- केतरहगये हैं. २ 'ख' स्वर वेद में केवल 'क्लस्' धातु में मिलता है और संस्कृत साहित्य भर में उक्त धातु को छोड़ कर कहीं उसका प्रयोग नहीं मिलता. वैयाकरलो ने तोतले बोलने वाले बच्चों के के प्रमुख उच्चारण के अनुकरण में इसे माना है, तो भी इसके पशुत का प्रयोग मानने को वे तय्यार नहीं है, क्योंकि इसका व्यवहार ही नहीं है. यक यजुर्वेद के प्रातिशास्य में अन्य स्वरों से समानता करने के लिये 'ल' के दीर्घ और प्लुत रूप माने हैं परंतु उनका प्रयोग कहीं नहीं मिलता हस्व बजार वाले शय के कल्पित संबोधन में प्लुत 'लू' का होना वैयाकरण और कुछ शिक्षाकार मानते हैं. तो भी वास्तव में प्राची शिपि . माज कल निमात्रिक स्वर अर्थात् प्लुत के लिये दीर्घ स्वर के प्रागे ३ का अंक लगाते हैं परंतु यह रीति प्राचीन नहीं जान पड़ती. दीर्घ स्वरों के लिये जैसे इसके मागे २ का अंक नहीं लगाया जाता परंतु माझी और वर्तमान नागरी *