प्राचीनलिपिमाला. 'उ', और 'अ' के चित्र क्रमशः एक और दो भाड़ी (- =) या खड़ी (1) लकीरें हैं जो व्यंजन के नीचे को लगाई जाती हैं. जिन व्यंजनों का नीचे का हिस्सा गोल या भाड़ी लकीरवाला होता है उनके साथ खड़ी, और जिनका खड़ी लकीरवाला होता है उनके साथ भाड़ी(दाहिनी मोर) लगाई जाती हैं ( देखो, तु, धु, नु, सु, कू,जू,). 'ए' और 'ऐ' के चिक क्रमशः एक और दो आड़ी लकीरें (-3 ) हैं जो बहुधा व्यंजन की पाईं ओर ऊपर की तरफ़ परंतु कभी कभी मध्य में भी लगाई जाती हैं, (देखो, के, टेणे, थे). ओ' का चिक दो आड़ी लकीरें हैं (--) जिनमें से एक व्यंजन की दाहिनी ओर को 'या' की मात्रा की नाई, और दूसरी बाई ओर को 'ए' की मात्रा के समान लगाई जाती है (देखो, मो, नो) 'औ' का चिक इस लेख में नहीं है किंतु उसमें 'ओ' के चिझ से इतनी ही विशेषता है कि बाई भोर को एक के स्थान में दो आड़ी लकीरें (= ) होती हैं जैसे कि लिपिपत्र पाठवें में 'पौ' में अनुस्वार का चिझ एक बिंदु ( . ) है जो बहुधा अक्षर की दाहिनी ओर ऊपर की तरफ रवा जाता है ( देवा, अं). विसर्ग का चिन इस लेग्व में तथा अशोक के दूसरे लेम्बों में भी कहीं नहीं मिलता, परंतु ई.स. की दूसरी शताब्दी के लेम्बों में वह मिलता है जो वर्तमान विसर्ग के चिक्र के सदृश ही है और वैसे ही अक्षर के पास आगे लगता है (देवो, लिपिपत्र ७, मूल की पहिली पक्ति में 'राज्ञः'.) अशोक के समय ऋ, ऋ, ल और तृ की मात्राओं के चिझ कैसे थे इसका पता नहीं लगता इतना ही नहीं, किंतु पिछले लेग्वों में भी 'ऋ' और 'ल' की मात्राओं के विकों का कहीं पता नहीं है. 'ऋ' की मात्रा का चिक पहिले पहिल ई. स की दूसरी शताब्दी के लेग्वों में मिलता है (देखो, लिपिपत्र ६ में मथुरा के लेग्वों के अक्षरों में 'गृ', 'ग' और ' '; लिपिपत्र ७ में 'कृ' और 'कृ'; और लिपिपत्र आठवें में 'कृ', 'गृ' और 'कृ'). संयुक्त व्यंजनों में कितने एक स्थानों में पहिले उच्चारण होनेवाले को ऊपर और पीछे उच्चारण होनेवाले को उसके नीचे जोड़ा है (देग्यो, भ्य, म्हि, वे, स्ति, स्व) जो शुद्ध है, परंतु कहीं कहीं दूसरे को ऊपर और पहिले को नीचे लिखा है (देखो, त्र, त्या, व्यो, स्टा, सा ) जो अशुद्ध है, और यह प्रकट करता है कि लेग्वक शुद्ध लिम्वना नहीं जानता था. हमने उन अक्षरों के ऊपर वर्तमान नागरी के शुद्ध अक्षर जान कर दिये हैं, जैसे खुदे हैं वैसा अक्षरांतर नहीं किया. 'क' में 'र'को अलग नहीं जोड़ा किंतु 'क' की बड़ी लकीर को 'र' का रूप देकर उसके साथ आड़ी लकीर जोड़ दी है. ऐसे ही 'ब्र' में 'व' की पाई तरफ़ की खड़ी लकीर को भीतर दवा कर उसमें कोण बना दिया है. ऐसे रूप अशोक के किसी दूसरे लेख में अथवा पिछले लग्यों में कहीं नहीं मिलने. संयुक्त व्यंजनों में पहिले आनेवाले 'र' (रेफ) तथा पीछे आनेवाले 'र' का भेद तो इस लेख का लेखक जानता ही न था जिससे उसने संयुक्त व्यंजनों में जहां जहां 'र' आया उसको सर्वत्र पहिले ही लिम्वा है और उसको (चिक मे पतलाया है जो उसके लिग्वे 'र'का अग्रभाग है ( देवो, त्र और वे ). इस लेख में 'ई','अ', 'ऐ', 'औ', 'ङ', 'ठ', 'श', और 'ष अक्षर नहीं है. 'ई' का रूप होना चाहिये, जिससे मिलना हुआ रूप क्षत्रपों के सिक्कों में (देखो, लिपिपत्र १०); भमरावती के लेग्व में (देखो, लिपिपत्र १२) और कई पिछले लेखों में मिलता है. 'अ', हस्व 'उ' के नीचे दाहिनी मोर एक और आडी लकरि जोडने से बनता था जैसा कि भरहुन स्तूप के लेखों से , किये हुए
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