पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/७५

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प्राशी शिपि. ४९ अक्षरों में (लिपिपत्र ३) दिया गया है. 'ऐ', 'ए' के अग्रभाग के साथ पाई मोर एक माड़ी लकीर जोड़ने से बनता था जैसा कि हार्थागुंफा के लेख में मिलता है (देखो, लिपिपत्र ३). 'औ' का प्राचीन रूप अशोक के लेखों में अथवा गुप्तों के समय के पूर्व के किसी लेख में नहीं मिलता. उसका अशोक के समय का रूप होना चाहिये. 'कु' बुद्धगया के उपर्युक्त मंदिर के स्तंभ पर मिलता है जिसकी आ- कृति है. का रूप बिलकुल वृत्त ० है और वह देहली के सवालक स्तंभ पर के अशोक के लेख में मिलता है (देखो, लिपिपत्र २). 'श' और 'ष' अशोक के ग्वालसी के लेग्स में मिलते हैं ( देवो, लिपिपत्र २). इस लेख में बहुतेरे अक्षरों के एक से अधिक रूप मिलते हैं. संभव है कि कुछ तो उस समय भिन्न भिन्न रूप से लिखे जाते हों परंतु यह भी हो मकता है कि उक्त लेख का लेखक जैसे शुद्ध लिखना नहीं जानता था वैसे ही बहुत सुंदर अक्षर लिखनेवाला भी न था क्योंकि इस लेख की लिपि वैसी सुंदर नहीं है जैसी किशोक के देहली के सवालक स्तंभ और पडेरिआ (मंमिंदेई) के स्तंभ के लेखों की है, और जैसे उनमें अक्षर तथा स्वरों की मालाओं के चिक एकसा मिलते हैं वैसे इस लेख में नहीं हैं. यह भी संभव है कि लेग्वक सिद्धहस्त न हो और त्वरा से लिखता हो जिससे अक्षर एकसा नहीं लिम्व सका. इसीसे कहीं सीधी बड़ी लकीर को तिरछा (देग्वो, उ, झ, न और प के दूसरे रूप) या गोलाईदार (देग्यो, ग और फ के दूसरे रूप) कर दिया है और कहीं गोलाईदार को तिरछा ( देखो, 'अ'का चौथा रूप और 'य' का तीसरा रूप) बना दिया है, लिपिपत्र पहिले की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- इयं धंमलिपी देवानं प्रियेन प्रियदसिना रामा लेखा- पिमा इध न किंचि जौवं भारभित्या प्रजूहितव्यं न च समाजो कतव्यो बहकं हि दोसं समाजम्हि पसति देवानं प्रियो प्रियदसि राजा अस्ति पि तु एकचा समा- जा माधुमता देवानं प्रियस प्रियदसिनो राम्रो पुरा महा- नसम्हि देवानं प्रियस प्रियदसिनो रामो धनुदिवस ब. लिपिपत्र दूसरा . यह लिपिपत्र देहली के मवालक स्तंभ', ग्वालसी', जोगड' और सिद्धापुर के चटानों तथा रधित्रा', सारनाथ और सांची के स्तंभों पर खुदे हुए अशोक के लेग्यों के फोटों से बनाया गया है और इसमें बहुधा वे ही अक्षर लिये गये हैं जिनमें लिपिपत्र पहिले के अक्षरों से या तो कुछ भिन्नता पाई जाती है या जो लिपिपत्र पहिले में नहीं मिले. यह भिन्नता कुछ तो देशभेद मे है और कुछ लेखक की रुचि और त्वरा से हुई है. देहली के सवालक स्तंभ के लेग्स की लिपि बडी सुंदर और जमी हुई है और वह सारा लेख सावधानी के साथ लिखा गया है. उसमें 'आ' में 'आ' की मात्रा का चिक ऊपर नहीं किंतु मध्य में लगा . . १. . जि १३. पृ ३०६-१० के बीच के लेट. श्रा स. स.जि.१, प्लेट ६७-६६. ५ '. जि. २, पृ. २४८-४६ के बीच के सेट. • .जि २, पृ. ३६६ के पास का प्लंट, २ पै.जि २, पृ. ४५०-६०के बीच के प्लेट. ४ .: जि ३. पृ. १३८-४० के बीच के सेट. है जि , पृ. १६८ के पास का प्लेट.