पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

माझी लिपि उक्त अक्षर का कुछ परिवर्तित रूप है'. 'म जुन्नर के लेख के 'मि' में जो 'म' अक्षर है उसका विकार मात्र है'. 'स' की बाईं तरफ लगनेवाली वक्र रेखा को अक्षर के मुख्य अंश से अलग कर उसको दाहिनी तरफ अधिक ऊपर बढ़ाने से यह विलक्षण ‘स बना है. लिपिपत्र १३ चे की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- 'चौपुगतो यवमहाराजो भाग्दायसगोत्तो प- नवानं मिवखंदवम्मा धंअकड वापतं धान- पयति बम्हेहि दानि ह वेजयिके धंमा- यबलवर्धानके य बम्हनानं अगिवेससगी- लिपिपत्र १४ यां. यह लिपिपत्र कोंडमुडि म मिले हुए राजा जयवर्मन के दानपत्र से तय्यार किया गया है. इसमें ई की खड़ी लकीर को तिरछा कर दिया है 'ड' और 'न में स्पष्ट अंतर नहीं है. 'ज', 'म', 'म' और 'म अक्षर लिपिपत्र १३ के उन अक्षरों से मिलने जुलने ही हैं इतना ही नहीं किंतु इस दानपत्र की लिपि बहुधा वैसी ही है जैसी कि लिपिपत्र १३ की है. लिपिपत्र १४ वं की मृल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- विजयखंधावाग नगरा कूदरातों महेश्वरपादप- ग्गिहिता महत्फलायनमगोतो राजा सिरिजय- मेा अानपति कदरे वापतं अंम्हे दानि अंम्हवेजयिके भारवर्धानके च बम्हनानं गोतममंगामायापम्म मवगतजम ८ मानवस लिपिपत्र १५ बां. यह लिपिपत्र हारहडगल्ली में मिले हुए पल्लववंशी राजा शिवम्कंदवर्मन् के दानपत्र से तय्यार किया गया है इसमें है और की बिंदियों के स्थान में - चिझ लगाये हैं 'ए' की आकृति नागरी के 'व (बिना सिर के ) से कुछ कुछ मिलनी हुई बन गई है. 'बकी बाई नरत की ग्वड़ी लकीर को भीतर की और अधिक दया कर बीच में गोलाई दी है. 'ब' का यह रूप दक्षिण की शैली की पिछली लिपियों में बराबर मिलता है. 'म्को पंक्ति से नीचे लिखा है और उसके ऊपर के दोनों शृंगों के साथ मिर की छोटी लकीर नहीं जोड़ी जो सस्वर 'म के साथ जुड़ी हुई मिलती हैं 'गा के माथ 'आ की मात्रा नीचे की तरफ़ से लगाई है. लिपिपत्र १५ वें की मृल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- सिद्धम् ॥ कांचिपुरा अग्निट्या (त्यो)मवाजपेयम्समेधयाजी धम्ममहाराजाधिराजा भारहायो पल्लवाण सिव- खंदवमो अम्ह विसये सवस्य राजकुमारसे- नापतिरट्टिकमाडविकदेसाधिकतादिके गामामाम- भोजके वलवे गोवल्लवे चमच भरणधिकते १. देखो, लिपिपत्र ११ में कालि के लेखों के अक्षरों में 'न' देखो, लिपिपत्र ११ में जुन्नर के लेखों का 'मि'. . पहिला अक्षर 'कां' है परंतु मूल में स्पष्ट नहीं है. . '. जि.६, पृ ३१६ से ३१६ के बीच के ४ प्लेटों से. ऐं: जि. १. पृ. ६-७ के बीच के ३ प्लेटों से