पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/८४

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५८ प्राचीनलिपिमाला अक्षरों में 'अ', 'र' आदि खड़ी खीर वाले अक्षरों की तथा 'पु' में 'उ की मात्रा की खड़ी लकीर को लंया कर नीचे के भाग में पाई और ग्रंथि सी बना कर अक्षर में अधिक सुंदरता लाने का यन स्पष्ट पाया जाता है. लिपिपत्र ११वें की मूल पंक्तियों' का नागरी अक्षरांतर- सिधं बोतराहस दांतामितियकस योणकस धंमदेवपुतस इंद्रामिदतस धंमात्मना इमं शेणं पवते तिरंगहुम्हि खा- नितं धभतरं च सेणस चेतियघरो पोढियो प माता- पितरो उदिस इम लेण कारितं सवबुधपुजाय चातुदि- शस भिख संघस नियातितं सह पुतेन धंमरखितम. लिपिपत्र १२ वां यह लिपिपत्र अमरावती के कई एक लग्यों तथा जग्गयपंट के ३ लेग्चों से नय्यार किया गया है. अमरावती के लेग्वों के अक्षरों में 8' की नीन पिंदिओं के स्थान में तीन आड़ी लकीरें बनाई हैं इतना नहीं किंतु उनको वक्र भी बनाया है और 'जा में 'श्रा की मात्रा को नीचे की ओर झुकाया है. जग्गयपेट के लेखों में 'अ', 'क', 'अ' आदि अक्षरों की ग्वड़ी लकीरों को नीचे की ओर बहुत बढ़ा कर उनमें बाई ओर घुमाव डाला है और 'ल की बड़ी लकीर को ऊपर की ओर बढ़ाकर घुमाया है, ऐसे को और कहीं 'उकी मावाओं को भी; 'हक चिह की तीन थिंदिनों के स्थान में अधिक मुड़ी हुई लकीरें बनाई हैं. इ के पहिले म्प की इन तीनों लकीरों को चलनी कलम में जोड़ कर लिग्वने से वर्तमान तामिळ लिपि के 'द का पूर्वरूप बन जाता है (देवा, लिपिपत्र ८४ में नामिळ लिपि की उत्पत्ति में 'इ' का तीसरा रूप). लिपिपत्र १२वें की मृल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- सिंध। रमओ) माढरिपुतस इखाकुना(णं) मिरिविरपुरिसदतस सं- वछर २० वासापखं ६ दिवसं १० कमाकरथे णडतुरे धावेनिस नाकचंदम पृता गामे महाकाडरे चासनि सिधया पापणे मातरं नागिलनि पुरतो कातुनं घरनिं लिपिपत्र १३ वां यह लिपिपत्र मोयिडवोलु से मिले हुए पल्लववंशी शिवस्कंदवर्मन् के दानपत्र' से तय्यार किया गया है. इसमें 'ए', 'ज', 'न', 'न', 'म' और 'स' अक्षर विलक्षण है. 'पकी त्रिकोण प्राकृति मिटकर नया रूप धना है जो न्वरा से लिस्वने के कारण ऐसा हुवा है. कलम उठाये बिना ही'त को पूरा लिखने से उसके बीच में ग्रंथि बन गई है'. 'न' कार्लि के लेग्व में मिलनेवाले २ ये मूल पंक्तियां इंद्राग्निदत्त के लेख से हैं (जि.८, मासिक के लेखो का प्लेट ५, लेखसंख्या १८.) प्रा. स. स; जि १, प्लेट ५६, लेखसंख्या १, १३, १६, १७, १८, ३०. ३१. ३८, ४०, ४१, ४५, ५३. प्रा. स स.जि. १, प्लेट ६२, ६३, लेखसंख्या १-३ ४ ये मूल पंक्तियां मा.स.सप्लेट ६३, लेखसंख्या ३ से है. ऐं. ई. जि. ६, पृ ८४ से ८८ के बीच के ५प्लेटों से. ६. 'त' का ऐसा ही रूप कन्हेरी के एक लेख में भी मिलता है (देखो,लिपिपत्र ११ में ).