प्राचीनलिपिमाला कि अक्षर की चौड़ाई होती है. ११वीं शताब्दी की नागरी लिपि वर्तमान नागरी से मिलती जुलती ही है और १२ वीं शताब्दी से वर्तमान नागरी बन गई, केवल ', और 'ध में ही कहीं पुरानापन नजर माता है (देम्वो, लिपिपत्र २६ में जाजल्लदेव के लेख के अक्षर) और व्यंजनों के साथ जुड़नेवाली ए, ऐ, भो और की मात्राओं में कभी कभी यह अंतर पाया जाता है कि 'ए' की मात्रा व्यंजन के पूर्व खड़ी लकीर के रूप में सिर की लकीर से सटी रहती है, 'ऐ की मात्रा में एक तो वैसी ही खड़ी लकीर और दूसरी तिरछी रेखा व्यंजन के ऊपर लगाई जाती है (देखो, लिपिपत्र २७ में धारा- वर्ष के लेख से दिये हुए अक्षरों में 'ने' और 'लै); 'यो की मात्रा दो खड़ी लकीरों से बनाई जाती है जिनमें से एक व्यंजन के पहिले और दूसरी उसके पीछे ( 'श्रा की मात्रा की नाई ) रहती है, और 'नौ' में वैसी ही दो लकीरें तथा एक वक्र रेखा व्यंजन के ऊपर रहती हैं (देखो, लिपि- पब २७ की मूल पंक्तियों की दूसरी पंक्ति में 'वंशोद्धरण' में 'शो', और पहिली पंक्ति में 'भौमे में भौ' तथा 'चौलुक्य में 'चौ). उक्त ४ स्वरों की इस प्रकार की मात्राएं शिलालेग्वादि में कहीं कहीं ई. स. की १५ वीं शताब्दी नक और हस्तलिखित पुस्तकों में १६वीं शताब्दी के पीछे तक मिल आती हैं, जिनको राजपूताना के पुस्तकलेखक पड़ी माताएं'(पृष्ठमात्रा) कहते हैं. ई.स.की १२ वीं शताब्दी से लगा कर अब तक नागरी लिपि बहुधा एक ही रूप में चली आती है तो भी लेग्वनशैली और देशभेद से कुछ अंतर रह ही जाता है, जैसे कि जैन लेग्यकों के इ, उ, छ, झ, ठ, ड, ल और क्ष अक्षर (इ, उ, ब, क, उ, म, ल, ६), और दक्षिणवालों के अ, झ, ए, भ और क्ष अक्षर (अ, स, ण, भ और क्ष) नागरी के उन अक्षरों से अब भी भिन्न हैं. दक्षिण में वर्तमान नागरी से अधिक मिलती हुई लिपि उसरी भारतवर्ष की अपेक्षा पहिले, अर्थात् ई. स. की आठवीं शताब्दी से, मिलती है. पहिले पहिल वह राष्टकट (राठौड़) वंश के राजा दंतिदुर्ग के सामनगढ़' से मिले हुए शक संवत् ६७५ ( ई. स. ७५४ ) के दानपत्र में; उसके बाद राष्ट्रकूट राजा गोविंदराज (दूसरे)के समय के धुलिपा से मिले हुए शक सं. ७०१ (ई.स. ७८०) के दानपत्र में; तदनंतर पैठण' और वणीगांव से मिले हुए राष्टकूट गोविंद ( तीसरे ) के दानपत्रों में, जो क्रमशः शक संवत् ७१६ और ७३० ( ई. स. ९४ और ८०८ ) के हैं; बड़ौद से मिले हुए गुजरात के राष्ट्रकूट धुवराज (धारावर्ष, निरुपम) के श. सं. ७५७ (ई. स. ८३५) के दानपत्र में और राष्ट्रकूट अमोघवर्ष और उसके शिलारवंशी सामंत पुल्लशक्ति ( प्रथम और द्वितीय) के समय के कन्हेरी के लेखों में, जो क्रमशः श.सं. ७६५ (?) और ७७३ (ई.स.८४३ और ८५१) के हैं, पाई जाती है और उक्त समय के पीछे भी दक्षिण की लिपियों के साथ साथ बराबर मिलती चली माती है. उपर्युक्त सब नानपत्र और शिलालेख भिन्न भिन्न पुरुषों के हाथ के लिम्वे हुए होने से उनकी लेग्वनशैली कुछ कुछ निराली है परंतु उनकी लिपि को नागरी कहने में कोई संकोच नहीं है. इस प्रकार नागरी लिपि ई. स. की ८ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से विस्तृत रूप में लिखी हुई मिलती है परंतु उससे पहिले भी उसका व्यवहार होना चाहिये क्योंकि गुजरात के गूर्जरवंशी राजा जयभट (तीसरे) के कलचुरि संवत् ४५६ (ई. स. ७०६) के दक्षिणी शैली की पश्चिमी लिपि के दानपत्र में उल राजा के हस्ताक्षर 'खहस्तो मम श्रीजयभटस्य' नागरी लिपि में ही है. ...: जि. ११, पृ. ११० से ११३ के बीच प्लेट . .जि८, १८६-७ के बीच के प्लेट. . . जि. ३, पृ. १०६ और १०७ के बीच के प्लेट. ई. जि. १५, पृ. १५८ और १६१ के बीच के प्लेट. .., जि १४, पृ. २०० और २०१ के बीच के प्लेट. .. जि. १३. पृ १३६ और १३४. जि. २०. पृ. ४२१-२. ई.पे, पोट ५. अक्षरों की पंक्ति ५. और पृ. ५१, टिप्पा • .जि २, पृ २५८ के पास का प्लेट.
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