पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/९७

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७१ नागरी लिपि. लिपिपत्र २४ वां. यह लिपिपत्र मोरवी से मिले हुए राजा जाइंकदेव के गुप्त संवत् ५८५ (ई स. ६०४) के दानपत्र, अलवर से मिले हुए प्रतिहार राजा विजयपाल के समय के वि. स. १०१६ (ई.स. १५९) के शिलालेख और नेपाल से मिली हुई हस्तलिखित पुस्तकों से तय्यार किया गया है. जाइंकदेव के दानपत्र के अक्षरों की प्राकृति कुटिल है परंतु लिपि नागरी से मिलती हुई ही है, केवल ख, घ, छ, स, थ, घ, न, फ और म अक्षर वर्तमान नागरी से भिन्न हैं. लिपिपत्र २४ वें की मूलपंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- षष्टिवरिष(वर्ष)सहखाणि स्वगर्गे तिष्ठति भूमिदः । पाछेत्ता [चानुमंता र तान्येव मरकं वसेत् । खदत्तां परदत्तां वा यो हरेतुति) वसुंधरा । गवां शतस- हसस्य ह(इं)तुः प्राप्नोति किस्वि(ल्बिष ॥ विध्याटवौष्व- लिपिपत्र २॥ वां यह लिपिपत्र छिंदवंशी लल्ल के वि सं. १०४६ (ई. म. ६६२) के देवल कं लग्व' से, परमार राजा भोजरचित 'कृर्मशतक' नामक दो काव्यों से, जो धार से शिलाओं पर खुदे हुए मिले हैं, और परमार राजा उदयादित्य के समय के उदयपुर तथा उज्जैन के लेग्वों से, तप्यार किया गया है. देवल के लेख में 'अनागरी का सा बन गया है क्योंकि उसकी ग्वड़ी लकीर के नीचे के अंत में बाई ओर से तिरछी रेग्वा जोड़ी है. यही तिरछी रेग्वा कुछ काल के अनंतर 'अ' की बाईं तरफ की तीन निरछी लकीरों में से तीसरी बन गई जो वास्तव में अक्षर में सुंदरता लाने के विचार से जोड़ी जाती थी. कर्मशतक के अक्षरों में 'इ' और 'ई' में ऊपर की दो बिंदियों के बीच की वक्र रेखा, उन्हींके नीचे की तीसरी बिंदी के स्थानापन्न ७ चित्र के अंत का बाईं तरफ से दाहिनी तरफ़ पड़ा हुमा घुमाव, एवं 'ऊ' और 'ओ' के नीचे के भाग का वैसा ही घुमाव, केवल सुंदरता के विचार से ही हैं. उंदयादित्य के उदयपुर के लेख में 'इ' की जो प्राकृति मिलती है वह तीन बिंदीवाले 'इ' का रूपांतर है और उसे सुंदर बनाने के विचार से ही इस विलक्षण रूप की उत्पत्ति हुई है उदयादित्य के उज्जैन के लेख के अंत में उस समय की नागरी की पूरी वर्णमाला, अनुस्वार, विसर्ग, जिवामूलीय और उपध्मानीयं के चित्रों सहित खुदी है, जिससे ई. स. की ११वीं शताब्दी में ऋ, ऋ. ल और ल के रूप कैसे थे यह पाया जाता है - ( । ई., जि.२, पृ. २५८ के पास का सेट. २ उदयपुर निवासी कुंधर फतहलाल मेहता की भेजी गई उक्त लेख की छाप से. 1. पे; प्लेट ६, प्राचीन अक्षरों की पंक्ति ७ से. • मित्र भिन्न लेखकों की लेखन शैली भिन्न मिलती है. कोई सरल अक्षर लिखता है तो कोई टेढ़ी मेढ़ी प्राकृति के अर्थात् कुटिल. ऐसी दशा में लिपिविभाग निश्चय रूप से नहीं हो सकते । ये मूल पंक्तियां जाकदेव के उपर्युक्त दानपत्र से हैं. .जि. १. पृ.७६ के पास का प्लेट. .. ऐ.जि.८.पृ. २४८ और २६० के बीच के प्लेट - पं.जि १, पृ. २३४ के पास का प्लेट. • उज्जैन में महाकाल मंदिर के पीछे की एक पत्री में बड़ी ई शिक्षा पर खुदी दुई प्रशस्ति की अपने हाथ से तय्यार कीजाप से. यह शिता उदयादित्य के समय की किसी प्रशस्ति की अंतिम शिला है जिसमे ८० के पीछे के थोड़े से श्लोक है इसमें अंबर नहीं है, परंतु पत्थर का जो अंशकाली रह गया उसपर प्रशस्तिलेखक के हाथ से ही लिखी हुई पूरी वर्णमाला तथा नाग के प्रथित चित्र भीतर धातुओं के प्रत्यय आदि खुदे (जैसे कि धार से मिले हैं) और अंत के खोक में "दशादिवदेव पनामबपारिवा "सदा है जिससे उन प्रशस्ति का बवादित्य के समय का होगा पाना जाता है.