पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१०३

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है और अपना रोना रोता है। कहता है कि जिस देश के लोग अपनी मातृभूमि की 'सूच्यग्रं नैव दास्यामि विना युद्धन केशव' कहते थे और उसी के लिए मर मिटते थे वहीं के लोगों की आज क्या दशा है। अंग्रेजो का राज्य होने पर सोचा था कि 'हम अपने दुखी मन को पुस्तकों से बहलावेंगे और सुख मानकर जन्म बितावेंगे' पर यहाँ भी निराशा ही है। इस वाक्य के एक एक शब्द पर ध्यान दीजिए तब मर्म-व्यथा का स्पष्टीकरण आप ही हो जाएगा। अंत में ईश्वर की याद करता है पर वह भी नहीं करने पाता तब डर कर मूर्च्छित हो जात है। निर्लज्जता और आशा ( एक दिग्गज विद्वान भी सम्पति में 'भारतोदय करने की दृढ़ता का भाव' ) आती हैं तथा उसे ले जाती हैं। तीसरे अक में भारतदुर्दैव आता है और उसके मुख से बड़ी खूबी के साथ भारत की दुर्दशा का पूरा विवरण दिलाया गया है। अँग्रेजी राज्य तक के उन दोषो का, जिन्हें वे मानते थे, प्रशंसा में लपेट कर खूब वर्णन किया है। अकाल, मँहगी, रोग, अनावृष्टि, फूट-बैर के साथ साथ नवागंतुको का अनुगमन करते प्लेग आदि रोग, टिकस, काफिर-काला आदि अपमानजनक संबोधन भी आ पहुँचे। 'अँग्रेजी अमलदारी में भी हिंदू न सुधरे। लिया भी तो अँग्रेजो से औगुन।' आज भी प्रायः पंचानबे प्रतिशत हिंदू निरक्षर हैं। साक्षरों में कुछ ही सुशिक्षित हैं। ये 'मिलकर देश सुधारा चाहते हैं। हा! हा! एक चने से भाड़ फोड़ेंगे'। इसके लिखे जाने के पचास वर्ष बाद आज भी एक चना से भाड़ फोड़वाने की कोशिश हो रही है। भारत- दुर्दैव के फौजदार सत्यानाश जी आते हैं और अपनी तारीफ