नहीं है। आर्य जन मात्र को विश्वास है कि हमारे यहाँ सर्वदा स्त्रीगण इसी अवस्था में थीं। इस विश्वास के भ्रम को दूर करने ही के हेतु यह ग्रंथ विरचित होकर आप लोगो के कोमल कर- कमलों में समर्पित होता है। निवेदन यही है कि आप लोग इन्हीं पुण्य रूप स्त्रियों के चरित्र को पढ़ें-सुनें और क्रम से यथा-शक्ति अपनी वृद्धि करें।'
उक्त उद्धरण से यह स्पष्ट है कि यह नाटक स्त्रियों को लक्ष्य कर लिखा गया है और इसमें दिखलाया गया है कि वीर क्षत्राणियाँ अवसर प्राने पर कैसा साहस कर सकती हैं। भारत की स्त्रियाँ सदा इस प्रकार गृह की चहार दीवारी में बंद रहती थीं, ऐसा भ्रम फैला हुआ था और है, उसी को दूर करने के लिए नीलदेवी का चरित्र इसमें वर्णित है। वह अपने पति तथा पुत्र को युद्धादि विषय में सम्मति देती थीं तथा अपने सैनिको को प्रोत्साहित करती थीं। समय आने पर उन्होंने अवसर बना कर पति को अधर्म से मारने वाले शत्रु को उसी के शस्त्र 'शठं प्रति शाठ्यं' की नीति से मार डालो। यही चरित्र इसमें चित्रित किया गया है। इसपर एक सज्जन लिखते है कि 'केवल प्रतिहिंसा के भाव को उत्तेजना मिलती है।' ठीक ही है, हिंसा-प्रतिहिंसा से दूर रहना ही हम भारतीयों की मूल प्रवृत्ति हो गई है। 'जान थोड़े ही भारी पड़ी है,' मारपीट को दूर से नमस्कार और अब तो वास्तव में हमें अपनी हॉड़ी पुरवे की ही रक्षा करना है, उसके लिए तलवार, कटार, बंदूक, तोप से हिंसा-प्रतिहिंसा करने की आवश्यकता ही क्या? छटांक भर को कड़ी काफी है, बजा लिया जायगा और उससे भी डर लगे तो घर के भीतर।