पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१११

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का आह्वान सा किया गया है, जिन्होंने दिखला दिया था कि शक्ति अपनी शक्ति नहीं भूली है और उसने प्रचंड वीरो को भी ललकार कर मारा है। इसके अनंतर मातृ-भगिनी-सखी-तुल्या आर्य ललनाओं को संबोधन कर नाटककार उनसे बहुत कुछ कहता है। संबोधन के शब्दो ही में कवि के हृदय के कितने भाव टपक रहे हैं। बड़े दिनों में यूरोपियन महिलाओं को पुरुषों के साथ स्वच्छंदता से घूमते फिरते देखकर कवि-हृदय में स्वदेश की स्त्रियो के प्रति सहानुभूति उत्पन्न होती है कि उनकी कैसी हीन अवस्था है। यह बात आज से साठ वर्ष पहिले की है, जब लड़कों को भी स्कूलों में भेजना उन्हें ईसाई बनाना समझा जाता था। स्कूल का इस कुल कर कहा जाता था कि ये लड़के इस कुल जाकर इस कुल के न रहेंगे। उस समय लड़कियों को शिक्षा देने का विचार भी जल्दी नहीं उठता था। ऐसे समय इन शिक्षा से हीन, बाल-वृद्ध-विवाह आदि कुप्रथाओं से ग्रस्त भारतीय स्त्रियों के प्रति प्रत्येक देश-प्रेमी की दृष्टि समवेदना से बरबस आकृष्ट हो जाती थी। 'जिस भॉति अँग्रेजी स्त्रियाँ सावधान होती हैं, लिखी पढ़ी होती हैं, घर का काम काज सँभालती हैं, अपने संतानगण को शिक्षा देती हैं, अपना स्वत्व पहचानती हैं, अपनी जाति और अपने देश की संपत्ति विपत्ति को समझती हैं, उसमें सहायता देती हैं और इतने समुन्नत मनुष्य-जीवन को व्यर्थ गृहदास्य और कलह ही में नहीं खोतीं, उसी भाँति हमारी गृह-देवता भी वर्तमान हीनावस्था को उल्लंघन करके कुछ उन्नति प्राप्त करें, यही लालसा है। इस उन्नतिपथ का अवरोधक हम लोगो की वर्तमान कुल परंपरा-मात्र है और कुछ

भा० ना० भू०---८