पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

धनंजय-विजय


व्यायोग

――――●――――

हरेलींलावराहस्य, दंष्ट्रादण्डः स पातु वः।
हेमाद्रिकलशा यत्र, धात्री छत्रश्रियं दधौ॥

(सूत्रधार आता है)

सू०-(चारों ओर देखकर) वाह ! वाह ! प्रातः काल की कैसी शोभा है!

(भैरव)

भोर भयो लखि काम-मातु श्रीरुकमिनि महलन जागीं।

बिकसे कमल, उदय भयो रवि को, चकई अति अनुरागीं॥
हंस-हंसिनी पंख हिलावत, सोइ पटह सुखदाई।
आँगन धाइ धाइ कै भँवरी, गावत केलि बधाई॥

(आगे देखकर) अहा शरद ऋतु कैसी सुहावनी है!