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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१२७

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द्-नाटकावली
सब को सुखदाई अति मन भाई शरद सुहाई आई।

कूजत हंस कोकिला, फूले कमल सरनि सुखदाई॥
सूखे पंक, हरे भए तरुवर, दुरे मेघ, मग भूले।
अमल इंदु तारे भए, सरिता-कूल कास-तरु फूले॥
निर्मल जल भयो, दिसा स्वच्छ भइँ, सो लखि अति अनुरागे।

जानि परत हरि शरद विलोकत रतिश्रम आलस जागे॥

(नेपथ्य की ओर देखकर) अरे ! यह चिट्ठी लिए कौन आता है?

(एक मनुष्य चिट्ठी लाकर देता है, सूत्रधार खोलकर पढ़ता है।

“परम प्रसिद्ध श्रीमहाराज जयदेवजी--

दान देन मैं, समर मैं, जिन न लही कहुँ हारि।
केवल जग में विमुख किय, जाहि पराई नारि।
जाके जिय में तूल सो, तुच्छ दोय निरधार॥

खीझे अरि को प्रबल दल, रीझे कनक पहार।

वह प्रसन्न होकर रंगमंडन नामक नट को आज्ञा करते है।

अलसाने कछु सुरत-श्रम, अरुन अधखुले नैन।

जगजीवन जागे लखहु, दैन रमा चित चैन॥
शरद देखि जब जग भयो, चहुँ दिसि महा उछाह।

तौ हमहूँ को चाहिए मंगल करन सचाह॥